Book Title: Karm Vignan Part 09 Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 10
________________ प्राक्कथन कर्म-सिद्धान्त के समग्र स्वरूप पर क्रमशः चिन्तन और चर्चा करते हुए मैंने पिछले आठ भागों में विस्तारपूर्वक लिखा है। 'कर्म' का आदि बिन्दु जीव है और अन्तिम बिन्दु भी जीव है। कर्मयुक्त जीव को आधार मानकर ही कर्म के समग्र भेद-उपभेद पर चर्चा होती है, इस चर्चा का लक्ष्य केवल बौद्धिक व्यायाम नहीं है, किन्तु एक स्पष्ट और सहज लक्ष्य है इस कर्म-चक्र से जीव की मुक्ति। कर्म-चक्र से मुक्त होने के उपायों पर विचार करने के लिए ही समग्र धर्मशास्त्र की रचना हुई है। अतः कर्म का अन्तिम बिन्दु ही जीव है। अन्तर यही है कर्म का आदि बिन्दु कर्मयुक्त संसारी जीव है और अन्तिम बिन्दु है कर्ममुक्त अशरीरी जीव। कर्ममुक्त होने पर कर्म की चर्चा भी समाप्त हो जाती है। कर्म का अस्तित्व संसार तक है। इसलिए हमने इस नौवें भाग में कर्ममुक्ति के चरम शिखर पर पहुँचे 'अरिहंत' वीतराग आत्मा के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक चर्चा करके अन्त में सिद्ध स्वरूप पर प्रकाश डालकर कर्म-सिद्धान्त की चर्चा समाप्त कर दी है। अतः नौवें भाग में कर्म-विज्ञान परिपूर्ण हो रहा है। कर्म-विज्ञान के पिछले भाग पढ़ने वाले अनेक जिज्ञासु पाठकों ने सूचित किया है कि यह विवेचन उपयोगी और ज्ञानवर्द्धक होते हुए भी नौ भागों में इतना विस्तृत हो गया है कि इसे पढ़कर क्रमपूर्वक ध्यान में रखना बहुत कठिन है, अतः सम्पूर्ण नौ भाग की एक सारपूर्ण संक्षिप्त जानकारी एक ही स्थान पर प्राप्त हो जाये तो हमें पढ़ने और साररूप में सम्पूर्ण कर्म-विज्ञान का अवगाहन करने में सुविधा रहेगी। प्रबुद्ध पाठकों की यह भावना मुझे भी उपयुक्त लगी और मैंने तथा मेरे विशिष्ट परम सहयोगी मुनि श्री नेमीचन्द जी महाराज ने पुनः श्रम करके समग्र कर्म-विज्ञान के सागर को गागर में भरने का प्रयास किया है। जिसे 'कर्म-सिद्धान्त : बिन्दु में सिंधु' शीर्षक से दिया जा रहा है। इस संक्षिप्त सारपूर्ण प्रस्तावना कर्म-विज्ञान अथ से इति तक का पूरा विषय क्रमिक रूप में पाठकों को पढ़ने व समझने में काफी उपयोगी होगा, ऐसा विश्वास है। प्रारम्भ में कर्म-विज्ञान को चार-पाँच भाग में ही प्रस्तुत करने की योजना थी, परन्तु विस्तृत होते-होते यह नौ भागों में सम्पूर्ण हो रहा है और इसके अन्त में पारिभाषिक शब्द-कोष का परिशिष्ट भी जोड़ दिया है जो कर्म-विज्ञान के अध्येता और विद्यार्थियों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी रहेगा। इस प्रासंगिक प्राक्कथन के साथ ही आज मैं अपने अध्यात्म नेता, श्रमणसंघ के महान् आचार्यसम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज व आचार्यसम्राट् राष्ट्रसन्त महामहिम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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