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॥ प्रस्ता
॥ कल्याण- कलिका. खं० २॥
बना ॥
योग्यतानुं महत्त्व छ, ए ज कारणे केटलाक प्रतिष्ठाकल्पकारोए आचार्यने 'प्रतिष्ठाचार्य' अथवा 'प्रतिष्ठागुरु' ए नामथी ज कल्पोमां संबोध्या छे.
श्री वर्धमानसूरिए तो पोताना प्रतिष्ठाकल्पमा ए वातनुं स्पष्टीकरण ज करी दीधुं छे, कहुं छे. "आचार्यैः पाठकैश्चैव, साधुभिनिसक्रियैः । जैनविप्रैः क्षुल्लकैश्च, प्रतिष्ठा क्रियतेऽर्हतः ॥१॥ अर्थात् 'आचार्यो, उपाध्यायो, ज्ञानक्रियावान् साधुओ, जैनब्राह्मणो अने क्षुल्लको द्वारा आर्हती प्रतिष्ठा कराय छे.'
पन्यासो, गणिओने हाथे प्रतिष्ठित थयेली सेंकडो प्राचीन प्रतिमाओ आजे पण उपलब्ध थाय छे, आधी पण निर्विवादपणे सिद्ध थाय छे के 'आचार्य ज अंजनशलाका प्रतिष्ठा करावी शके' आवा प्रकारनी मान्यता पूर्वकालमा न हती, आजे पण गीतार्थो तो आवी मान्यता धरावता नथी अने अगीतार्थो के अजाण माणसोना कथननु कंइ पण प्रामाण्य होतुं नथी.
निर्वाणकलिकाना समय सुधी प्रतिष्ठाकार्यमां शिल्पी, इन्द्र अने आचार्यनी ज प्रधानता हती, पण ते पछीना समयमां शिल्पीयूँ | महत्त्व कंडक घटी गयुं छे, प्रतिष्ठाप्य प्रतिमाना प्रथमाभिषेकनो अधिकार पूर्वे शिल्पीनो गणातो हतो ते कालान्तरे उडी गयो, पूर्वे शिल्पीने प्रथम सत्कारीने पछी प्रतिष्ठा कराती हती ते वस्तु पण बदलीने प्रतिष्ठा पछी शिल्पीनो सत्कार करवानु राख्यु, अने इन्द्रनो अधिकार
ते जाणे कदी हतो ज नहि, एम भूलाइ गयो अने तेना स्थाने ४ स्नात्रकारोनियुक्त थया, नं० २ थी ७ मा सुधीना कोइपण प्रतिष्ठाकल्पमा | इन्द्रनो उल्लेख नथी, ज्यां ज्यां स्नात्रकारो ज दृष्टिगोचर थाय छे, अने तेओ ज प्रतिष्ठाना सर्वकामोमा आगल पडतो भाग ले छे. छेक
८ नंबरना कल्पमां पाछो इन्द्र हाजर थाय छे, पण आ वखते इन्द्रना हाथमां ते सत्ता रही नथी के जे पूर्वे हती, आ बखतनो इन्द्र | मर्यादित सत्तावालो अने स्नात्रकारोनो सहकार साधीने काम करनारो कह्यो छे.
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॥३०॥
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