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॥ कल्याण- कलिका. खं० २ ॥
| प्रस्तावना ।।
।। २७ ॥
स
वधारो थयो छे अने आजनी अंजनशलाका-प्रतिष्ठाओ घणीज खर्चाल थइ गइ छे. दाखलातरीके-बीजा कल्पोनी विधि प्रमाणे अंजनशलाकावाली | प्रतिष्ठामा १ काच, १ चांदीनी वाटका, १ सोनानी शली, १ दीपक, १ चमरनी जोड इत्यादि बहुज परिमित सामग्रीथी काम लेवानुं | विधान छे. त्यारे आ कल्याणक विधिवाला कल्पना विधान प्रमाणे ९ काच, २ चांदीनी वाटकी, १ सोनानी सली, १ दीपक ४ दीवी ३ चमरनी जोडो, १ सोनानी वाटकी, १ सोनानी रकेबी, १ सोनानो थाल इत्यादि अनेक उपकरणोमां अने उपकरण संख्यामा वृद्धि थइ छे, खर्च वध्यो छे अने प्रतिष्ठाना प्रसंगो घट्या छ,
५ प्रतिष्ठाना मुख्यतन्त्रवाहकोप्रतिष्ठाकल्पकारोए पोतपोताना कल्पोमा प्रतिष्ठाना मुख्य तंत्रवाहकानुं वर्णन कर्यु छे, जेमां सर्वथी प्राचीन “निर्वाणकलिका" नामनी पोतानी प्रतिष्ठाविधि पद्धतिमा श्रीपादलिप्ताचार्यजी महाराजे १ शिल्पी, २ इन्द्र अने ३ आचार्य नामथी प्रतिष्ठाना मुख्य अधिकारीओ त्रण गणाव्या छे. बीजा प्रतिष्ठाकल्पकारोए मात्र ४ स्नात्रकारो अने ४ औषधि वाटनारी स्त्रिओ- निरुपण कयुं छे. प्रतिष्ठाचार्य तो छे ज पण शिल्पीने अंगे कंइ पण जणाब्यु नथी.
निर्वाणकलिकानुं शिल्पी आदिनु वर्णन नीचे प्रमाणे छे(१) शिल्पी___ "तत्राद्यः सर्वावयवरमणीयः क्षान्तिमार्दवार्जवसत्यशौचसम्पन्नः मद्यमांसादिभोगरहितः, कृतज्ञो विनीतः शिल्पी सिद्धान्तवान् विचक्षणः, धृतिमान् विमलात्मा शिल्पीनां प्रधानो जितारिषड्वर्गः कृतकर्मानिराकुल इति ।१।"
अर्थ-'ते त्रणमा पहेलो शिल्पी (सूत्रधार-मिस्त्री) सर्वांगसुन्दर, क्षमाशील, नम्र, सरल, सत्यभाषी, शौचसंपन्न, मदिरामांसादि अभक्ष्य
॥ २७॥
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