Book Title: Kalpasutram
Author(s): Kanakvimalsuri
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala
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________________ श्रीसमा श्री कल्पमुक्कावल्या चारि // 459 // भक्तार्य वा पानार्थ वा निष्क्रमितुं वा प्रवेष्टुं वा तत् कुतो हेतोः-हे पूज्य / इति पृष्टे सति गुरुराह -आचार्याः प्रत्यपायं-अपायं तत्परिहारश्च जानन्तीति // 46 // मू-पा-एवं विहारभूमि वा वियारभूमि वा अन्नं वा जं किं चि पओयणं-एवं गामाणुगामं दुइज्जित्तए // 47 // ___व्याख्या एवं विहारभूमि-(जिनचैत्ये गमनं विहारो जिनसद्मनीति वचनात्-तथा विचारभूमि-शरीरचिन्ताघर्थ गमनं- अन्यद्वा यत्किश्चित्प्रयोजनं लेपसीवनलिरवनादिकम-उच्छवासादिवज सर्वमापृच्छयैव कर्त्तव्यमिति तात्पर्यः-एवं ग्रामानुग्राम हिण्डितुं भिक्षाद्यर्थ ग्लानादिकारणे वा-अन्यथा वर्षासु ग्रामानुग्रामहिण्डनमनुचितमेव // 47 // मू-पा-वासावासं पज्जोसविए भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरि विगई आहारित्तए-नो से कप्पड अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव जं वा पुरओ काउं विहरइ-कप्पड़ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव आहारित्तए / म-पा-इच्छामि गं भंते 1 तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अन्नयरिं विगई आहारित्तए तं एवइयं वा एवड खत्तो वा..ते य से वियरिज्जा एवं से कप्पइ अन्नयरिं विगडं आहारित्तए / ते य से नो वियरिज्जा एवं से नो कप्पइ अन्नयरिं विगई आहारित्तए / से किमाहु भंते 1 / आयरिया पच्चवाय जाणन्ति // 48 // व्याख्या-चतुर्मासकं स्थितः भिक्षुः-इच्छेत्-अन्यतरां विकृति-आहारयितुं तदा नो तस्य कल्पते-अनापकछय-आचार्य वा यावत यं वा पुरतः कृत्वा विहरति / कल्पते तस्य साधोः आपृच्छय-आचार्य वा-यावतआहारयितं कथं प्रष्टव्यमित्याह ॥-अहं-इच्छामि हे पूज्य ? युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् अन्यतरां विकर्ति // 459 //

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