Book Title: Kalpasutram
Author(s): Kanakvimalsuri
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala

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Page 500
________________ RSS श्री कल्यमुक्तावल्या श्री समा चारि 470|| द्वयोर्मध्ये यदा चैकः, क्षमति न चापरः, तदा का गति रित्याह, चाग्रिमसूत्रवाक्यतः // 23 // यः-उपशाम्यति अस्ति तस्याराधना यो नोपशाम्यति नास्ति तस्याराधना-तस्मात् आत्मना एव उपशमितव्यम् तत्-कुतो हेतोः हे पूज्य ? इति पृष्टे गुरुराह-उपशभप्रधानं श्रामण्यं श्रमणत्वं // // अत्र दृष्टान्तो यथा // सिन्धुसौवीरदेशेशो, मुकुटबद्धदिग्रनृपः, आसीदुदयनो राजा, सेव्यमानो निरन्तरम् // 24 // वीतभयपुरे राज्यं, कुरुते स्म च नीतितः, नयेन पालयन् राज्य, राजा गौरवमर्हति // 25 // विद्युन्मालिसुराभ्या-त्प्राप्ता तेन च मूर्तिका, वर्द्धमानप्रभो दिव्या, चमत्कारातिशायिनी // 26 // तदचां वरिवस्यां स, चकार भक्तिभावितः, भक्तिश्रद्धाकृतं कार्य, फलाय कल्पते त्वरा // 27 // एकदा श्रावकस्तत्र, गन्धाराभिध आययौ, तन्मूर्तिपूजनायैव, किश्च रुग्णः समाजनि // 28 // भूपोदयनदास्याऽस्य, देवदत्ताभिधानया, शुश्रूषा श्रद्धया चक्रे, गन्धारोऽति तुतोष च // 29 // दत्ता च गुटिका तेन, चाभूतरूपकारिणी, तयाऽपि भक्षिता जाता, श्रीरतिरूपजित्वरी // 30 // देवदत्ता ततो नाम्ना, सुवर्णगुलिकाऽभवत् , निर्व्याजकृतसेवाया, जायते च फलं मृदु // 31 // विशालमालवाधीश, श्चण्डप्रद्योत भूपतिः, उज्जयिन्यां तदा राज्य, कर्वन्नासीत्प्रतापवान् // 32 // चतुर्दशमहीपाले, विलसन्मुकुटाश्चितैः, सेव्यमानश्च यो देवे, सिव इव नित्यशः // 33 // देवाधिदेववीरस्य, सह प्रतिमया तदा, सुवर्णगुलिकां दासी, मपाहरद्वलादसौ // 34 // // 40 //

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