Book Title: Kalpasutram
Author(s): Kanakvimalsuri
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala

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Page 503
________________ श्रीसमाचारि श्रीकल्प मुक्तावल्या // 473 // पीडयामास भूयोऽपि, मिथ्यादुष्कृत पूर्वकम् , शुभाशयेन कर्तव्यं, कार्य येन शुभोदयः // 61 // पापं कुर्वन्नैवेति / (59) मृ-पा-वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा तओ उवस्सया गिण्हित्तए / तं वेउब्विया पडिलेहा साइज्जिया पमजणा (25) // 6 // व्याख्या-चतुर्मासक स्थितानां कल्पते साधूनां साध्वीनां च त्रीन् उपाश्रयान् ग्रहीतुं तद्यथा-जन्तु संसक्त्यादिभयात तत्र त्रिषु-उपाश्रयेषु द्वौ पुनः पुनः प्रतिलेख्यौ-द्रष्टव्यौ इति भावः / / साइज्जिधातु रास्वादने ततः उपभुज्यमानो य उपाश्रयस्तत्सम्बन्धिनी प्रमार्जना कार्या // यस्मिन्नुपाश्रये पूते, तिष्ठन्ति मुनयोऽमलाः, प्रमार्जयन्ति तं प्रातः, पुनः भिक्षांगतेषु च // 62 // मार्जयन्ति पुनश्चैवं, तृतयप्रहरान्तिमे, इत्थं वारत्रय कार्या, मार्जना शुद्धदृष्टितः // 63 // चतुर्मासातिरिक्ते च, वारद्वयप्रमार्जनम् , असंसक्ते विधिश्चैष, संसक्ते च पुनः १पुनः // 64 // उपाश्रयद्वयं शेष, दृशा पश्यन्ति नित्यशः, यतो नान्यः प्रकुर्वीत, ममत्वञ्च निवासकम् // 65 // उपाश्रयद्वयस्यैवं, तृतीयदिवसे. तथा, दण्डासनेन कर्तव्या, प्रमार्जना यथाविधि // 66 // अतः उक्त वेउब्विया पडिलेह' त्ति // 6 // 1 प्रमार्जनं कार्यमिति // // 473 //

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