Book Title: Kalpasutram
Author(s): Kanakvimalsuri
Publisher: Muktivimal Jain Granthmala
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________________ श्रीकल्पमुक्तावल्यां श्रीसमा चारि // 472 / / प्रवर्तिनीश्च निद्राणा, चन्दनां प्राह सा तदा, क्षम्यतां मेऽपराधो हि, स्वामिनि ? साम्प्रतं त्वया // 48 // शीतला चन्दनाऽप्याह, वाण्या शीतलया तदा, भद्रे ? त्वं हि कुलीनाऽसि, ततो युक्तं न चेदशम् // 49 // साप्यचे नेदृशं भूयः, करिष्ये पादयो स्ततः, पतिता तावता निद्रा, प्रवर्तिन्याः समागमत // 50 // मृगावती विशुद्धन, क्षमणेन शुभाशया, तदानीमेव सम्प्राप, क्षणेन केवलं शुचिः // 5 // प्रवर्तिनीकराम्यर्णे, प्रसर्पन्तं भुजङ्गमम् , केवलज्ञानतो ज्ञात्वा, शनैः पाणिमपासरत् // 52 // हेतुनानेन बुद्धाऽसौ, चन्दना चन्दनोपमा, मृगावतीं ततः प्राह, कथं हस्तापसारणम् // 53 // सों याति कराभ्यात , ततो हस्तापसारणम् , कथं ज्ञातस्त्वया सो, गाढान्धकारकेऽधुना // 54 // साऽप्यूचे कृपया ज्ञात, स्तवैव मयका त्वहिः, इत्युक्त्या केवलं तस्या, बिनिश्चिकाय चन्दना // 55 // मृगावतीं ततः साऽपि, क्षमयन्ती शिवाशया, चन्दना केवलं प्राप, मिथ्यादुष्कृतपूर्वकम् // 56 // इत्थं मिथ्यादुष्कृतं देयम् // न पुनः कुम्भकारक्षुल्लकदृष्टान्तेन // कुम्भकारः कदा कश्चित्कृत्वा भाण्डानि चातपे, अशुष्यत्-क्षुल्लकः किश्च, तानि प्रस्तरखण्डकैः // 57 // काणीचक्रे कुलालेन, विनयेन निवारितः, मिथ्यादुष्कृतमित्युक्त्वा, पुनश्वक्रे तथाविधम् // 58 // निवारितोऽपि तेनासौ, यावन्न च निवर्तते, कुद्धोऽस्य कर्णयो मध्ये, क्षिप्त्वा च बहुकर्करान् // 59 // मर्दयामास हस्ताभ्यां, मिथ्यादुष्कृतमाददत् , पीडयेऽहमिति चोक्तोऽपि, क्षुल्लकेन कुलालकः // 60 // // 472 //

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