Book Title: Jivan ki Pothi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 144
________________ बचपन १३७ प्रत्येक परिस्थिति को इतना महत्त्व दे देता है कि छोटी परिस्थिति को भी बड़ा बना देता है। कोई भी परिस्थिति बड़ी नहीं होती, पर आदमी उसे बड़ी बना देता है । परिस्थिति को देखने से वह बड़ी नहीं बनती, छोटी हो जाती है । देखना महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। अतीत को देखा जाता है, अनागत को देखा जाता है और वर्तमान को देखा जाता है। आज हम अतीत दर्शन की बात कर रहे हैं और उसमें भी प्रथम अवस्था-बचपन को देखने पर विचार कर रहे हैं । जो व्यक्ति वहां तक पहुंच जाता है, उनके सामने अनेक रहस्य अनावृत होते हैं और तब उसका व्यक्तित्व निराला होता है । उसी स्थिति में व्यक्ति अपने आपको सही अर्थ में समझ सकता है कि मैं क्या हूं? मैं क्या था ? जो मैं आज हूं वह किसका परिणाम है ? _हमारा वर्तमान का जीवन अतीत का परिणाम है। उसे अतीत ने गढ़ा था। आज उसे हम देख रहे हैं । जिस बचपन का मैं आज परिणाम हं, उस अवस्था को देख लेना महत्त्वपूर्ण है । परिणाम को नहीं मिटाया जा सकता । मिटाया जा सकता है प्रवृत्ति को। सामान्य आदमी परिणाम को मिटाने का प्रयत्न करता है, तभी उसे सफलता नहीं मिलता । ध्यान करने वाला परिणाम की ओर ध्यान नहीं देता, वह प्रवृत्ति को मिटाने का प्रयत्न करता है। ___ जब तक आदमी मूल तक नहीं पहुंचता, तब तक सही निदान भी नहीं हो सकता । हमारे व्यक्तित्व का मूल है बचपन, जहां बीजों की बुआई होती है । वहां पहुंच कर ही हम अवांछनीय वृत्तियों का उन्मूलन कर सकते हैं। बचपन हमारे जीवन की नींव है । उस नींव तक पहुंचना आवश्यक है । केवल वर्तमान को पकड़ना ही पर्याप्त नहीं है। अतीत का अवलोकन करना है। अतीत में चलते-चलते बचपन में जाना है । जिस दिन हम बचपन की दहलीज पर पैर रखेंगे, उस दिन यह स्पष्ट ज्ञात हो जाएगा कि मैं कौन हूं? मैंने क्या किया था, जिसका आज मैं परिणाम हूं? इन सारे प्रश्नों का उत्तर मिलेगा और नया आलोक जीवन में अवतरित होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202