Book Title: Jivan ki Pothi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 182
________________ जागरूकता : देखने का अभ्यास १७५ किया । गोशालक ने महावीर पर आरोप लगाते हुए कहा-पहले महावीर अकेले थे, संन्यासी थे, तपस्वी थे। अब वे समुदाय में रहते हैं, ठाट-बाट से रहते हैं। पहले वे तपस्या करते थे, अब वे प्रतिदिन खाते हैं। और भी कई आरोप थे। महावीर को इनसे लेना-देना कुछ भी नहीं था । साधना के आदिकाल में भोजन विशेष प्रकार का संयम का प्रतीक होता है । साधना के पक जाने के पश्चात् साधक क्या खाता, क्या नहीं खाता, कोई प्रश्न नहीं रहता। देखने की अनेक दृष्टियां होती हैं । साधक किसी को हीनता की दृष्टि से नहीं देखे । यह न समझे कि दूसरे मी में जी रहे हैं। मैं साधना करता हूं, जागरूकता में जीता हूं । ऐसा सोचना भी पूरा सही नहीं है । प्रत्येक व्यक्ति में मूर्छा भी होती है और जागरूकता भी होती है । जो साधना कर रहा है वह मूर्छा से पूरा मुक्त हो गया है, ऐसी बात नहीं है। जब तक वीतरागता का चरम बिन्दु प्राप्त नहीं हो जाता तब तक प्रत्येक व्यक्ति में मूर्छा रहती है, प्रमाद रहता है । अप्रमत्त अवस्था आएगी तो वीतरागता तत्काल आ जाएगी। वीतरागता प्राप्त होने पर ही व्यक्ति मूर्छा से मुक्त होता है । जिनमें मूर्छा कम होगी, वह घटनाओं से कम प्रभावित होगा। मंत्री मुनि हमारे संघ के विशिष्ट मुनि थे । वे अत्यन्त गंभीर और गहरे थे। वे प्रत्येक बात को सुनते, जानते, पर प्रभावित नहीं होते, न उसकी प्रतिक्रिया करते, न किसी को कहते । कोई व्यक्ति पूछता तो वे एक दोहा कहते -- "आंखों देखना कानों सुनना, मुंह से कुछ न कहना। नीरज कहे रे चेलका जग में इणविध रहना ॥ आगम का एक प्रसंग है। एक मुनि विहार कर रहे थे । चलते-चलते जंगल आ गया। वहां पूरा एकांत था । एकांत में साधना भी हो सकती है और एकांत में बुरा कर्म भी हो सकता है । एकांत अच्छा भी नहीं होता, बुरा भी नहीं होता । मुनि ने देखा, एक युवक किसी युवती के साथ दुराचार का सेवन कर रहा है । मुनि ने दृष्टि फिरा ली और आगे कदम बढ़ा दिए । उस युवक ने सोचा, मुनि ने मुझे दुराचार करते देख लिया है। यह गांव में जाकर मुझे बदनाम करेगा । अच्छा हो कि यहीं उसका काम तमाम कर दूं । युवक भागकर रास्ते के बीच खड़ा हो गया, जहां से मुनि को गुजरना था। मुनि आए । युवक ने पूछा, अभी रास्ते में तुमने क्या-क्या देखा? बताओ। मुनि मौन थे । युवक ने उत्तेजित होकर कहा-सच-सच बताओ अन्यथा मौत के घाट उतार दूंगा । साधु ने कहा "बहु सुणेहि कहिं, बरु अच्छीहि पेच्छई। नय विट्ठ सुअं सव्वं, भिक्खु अक्खाउ मरिहइ ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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