Book Title: Jivan ki Pothi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 175
________________ १६८ जीवन की पोथी चोट आई है, अमुक स्थान पर पीड़ा है। उसने कुछ भी नहीं छिपाया । उपचार किया और वह तरोताजा हो गया । दूसरे दिन दो मल्ल भिड़े और फलिह मल्ल ने मच्छिय मल्ल को जमीन पर पटक डाला । कारण स्पष्ट था कि फलिह ने अपना उपचार कर डाला था और मच्छिय अपनी पीड़ा को छिपाये अहंकर में चूर था। .. यह जीत जागरूकता की जीत है । यह हार मूर्छा की हार है। सचाई को अस्वीकार करना मूर्छा है । सचाई को स्वीकार करना जागरूकता है । जो अपनी दुर्बलता को नहीं जनता, वह मूर्छा में जीता है। मूर्छा का अर्थ है-पराजय और जागरूकता का अर्थ है-विजय । साधना करने वाला व्यक्ति यह स्पष्ट समझ ले कि प्रत्येक व्यक्ति में दुर्बलता होती है । इस दुनिया में जन्म ले और दुर्बलता न हो तो वह इस दुनिया के लायक नहीं रहता। इस दुनिया में जन्म लेने का अर्थ ही है दुर्बलता। साधक को अपनी दुर्बलता का पूरा भान होना चाहिए। उसे किसी भी परिस्थिति में दुर्बलता को छिपाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। अपनी दुर्बलता का स्वीकार न करना सबसे बड़ी बीमारी है। यह अचिकित्स्य बीमारी है। चिकित्सा की पहली शर्त है कि बीमार को अपनी बीमारी का अनुभव हो । अनुभव के बिना चिकित्सा नहीं हो सकती। चिकित्सा से पूर्व निदान आवश्यक होता है। चिकित्सा की भाषा में निदान और साधना की भाषा में कहें तो अपने आपको पहचानना साधना की पहली शर्त है । यह निदान जरूरी है कि मैं क्या हूं ? कहां हूं ? मेरा व्यवहार और आचरण कसा है ? जब तक निदान नहीं हो जाता, तब तक दुर्बलता की चिकित्सा नहीं की जा सकती। ..जागरूकता के दो अंग हैं-निदान यानी सचाई का स्वीकार और उसका उपचार । पहले पहचान, फिर उपचार । पहचानना बड़ा मुश्किल होता है । एक व्यक्ति राग-प्रकृति का होता है। उसमें प्रिय संवेदन के प्रति बहुत राग होता है । एक व्यक्ति द्वेष प्रकृति का होता है। उसमें अप्रिय संवेदन के प्रति बहुत आकर्षण होता है । वह लड़ाई में रस लेता है । विभिन्न प्रकृति के होते हैं लोग । सबसे पहले यह परीक्षा करनी चाहिए कि मैं कौन हूं? क्या हं? मेरा स्वभाव कैसा है ? मेरी प्रकृति कैसी है ? मुझमें किस चीज की अधिक आसक्ति है ? क्या खाने में अधिक आसक्ति है या सुनने में या देखने में या गंध लेने या स्पर्श के प्रति ? कौन सी आसक्ति तीव्र है और कौन सी मन्द है । यह निर्णय होना जरूरी है, क्योंकि साधना सबके लिए एक प्रकार की नहीं होती। साधक व्यक्तिगत चुनाव करता है। जिस विषय की ज्यादा आसक्ति होती है, उसी का उपचार किया जाता है । कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका आंख पर नियन्त्रण होता है किन्तु जीभ पर नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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