Book Title: Jivan ki Pothi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 173
________________ जागरूकता : यथार्थ का स्वीकार एक आदमी ऊंचाई पर खड़ा था और दूसरा नीचे । ऊंचाई पर खड़े मनुष्य ने कहा--'अरे ? अमुक आदमी आ रहा है।' नीचे खड़े व्यक्ति ने कहा - 'नहीं, कोई नहीं आ रहा है । मुझे तो कोई आता हुआ दिखाई नहीं देता।' वह बोला-'मुझे स्पष्ट दीख रहा है कि वह आ रहा है।' जो ढलान में खड़ा है उसे दिखाई नहीं दे रहा है और जो चोटी पर खड़ा है उसे दिखाई दे रहा है। उसने कहा- 'तुम भी ऊपर आ जाओ, दिखाई देने लगेगा।' जागरूकता ऊंचाई है, चोटी है साधना की। आदमी चोटी पर चढ़ना चाहता है, पर उसके लिए पुरुषार्थ चाहिए, पैरों में शक्ति चाहिए, गति चाहिए। यह सब होता है तब चोटी पर चढ़ा जाता है । जो चोटी पर चढ़ा है, वह कह सकता है जागरूकता बहुत अच्छी है। जो नीचे खड़ा है उसे जागरूकता अच्छी न लगे, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वहां तक पहुंचने के लिये बहुत श्रम चाहिए। साधना का सारा उपक्रम जागरूकता की स्थिति तक पहुंचने के लिये है, चोटी पर चढ़ने के लिये है । ध्यान प्रक्रिया के बिना वहां तक नहीं पहुंचा जा सकता । केवल यह कहने मात्र से कि 'जागरूक रहो' 'जागरूक रहो' कोई जागरूक नहीं बन सकता। इसके लिये अभ्यास जरूरी होता है। हजार में कोई एकाध व्यक्ति छलांग भरकर ऊपर चढ़ जाता है। पर यह सामान्य नियम नहीं हो सकता । सामान्य नियम यह है कि आदमी क्रम से आगे बढ़े और चोटी पर चढ़े। श्वासप्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा-ये सारे अभ्यास हैं चोटी पर चढ़ने के लिये, जागरूकता तक पहुंचने के लिए । श्वास को देखते-देखते जागरूकता परिपक्व बन जाए, स्थाई बन जाये, निरन्तर बन जाए । अभ्यास के द्वारा ही ऐसा हो सकता है । प्रारम्भ में आदमी एक क्षण श्वास के प्रति जागरूक रहता है और दूसरे क्षण उसका मन न जाने कहां-कहां भटक जाता है । इस भटकाव में लंबा समय बीत जाता है । फिर उसे झटका लगता है और तब वह अपनी मूल स्थिति में आता है। यह एक समस्या है। हर आदमी इस समस्या को भोग रहा है। इससे छुटकारा पाने के लिए क्रमिक अभ्यास करना होता है । एक मिनिट की जागरूकता बढ़े, दो मिनिट की, तीन मिनिट और वार मिनिट की । इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते एक क्षण आता है कि जागरूक रहने की स्थिति बन जाती है। तब जागरूकता निरन्तर हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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