Book Title: Jivan ki Pothi
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 164
________________ अध्यात्म की चतुष्पदी १५७ कहकर न पुकारे । कालांतर में इसका नाम 'अतूंकारी भट्टा' प्रचलित हो गया। अति लाड़-प्यार के कारण उसमें अहंकार उभर आया । वह न किसी को 'तू' कहती और न किसी से 'तू' सुनती । वह युवती हुई। विवाह की चर्चा चलने लगी। उसने कहा-'मैं उसी के साथ विवाह करूंगी जो मेरी आज्ञा का पालन करेगा।' यह बात सर्वत्र फैल गई। कोई उसके साथ विवाह करने को राजी नहीं हुआ । अन्त में उसी नगरी का राज्यमंत्री सुबुद्धि उससे विवाह करने के लिए राजी हो गया। दोनों का विवाह हो गया । सुबुद्धि कभी-कभार घर देरी से आता ! भट्टा गुस्से में आ जाती । एक बार मंत्री विशेष बिलम्ब से घर पहुंचा । भट्टा मिसमिसायमाण बैठी थी। ज्योंहि मंत्री घर पहुंचा, वह घर से निकल गई । चलते-चलते जंगल आ गया। चोरों ने उसे पकड़ कर अपने चोरपति को सौंप दिया । चोरपति ने उसे पत्नी बनाना चाहा, पर वह इनकार हो गई । उसने उसे एक रक्त-व्यापारी के हाथों बेच दिया। रक्त-व्यापारी उसका रक्त निकालकर बेचता। इससे भट्टा का शरीर सूख कर कांटा हो गया। इस तीव्र वेदना से उसमें क्षमा की चेतना जागी । एक बार उसका भाई उस नगरी में गया । बहिन को अपने साथ ले गया। अब बहिन शांत, परम शांत हो चुकी थी। एक देव उसकी क्षमा की परीक्षा लेने मुनि का वेश बनाकर आया । उसने लक्षपाक तैल मांगा। यह अत्यन्त बहुमूल्य तैल होता है । अतूंकारी ने दासी से तैल का बर्तन लाने को कहा । दासी ज्यों ही तैल का बर्तन लेकर चली, वह बर्तन फिसला, जमीन पर गिरा और फूट गया । उसने जाकर स्वामिनी से कहा । भट्टा बोली, दूसरा घड़ा ले आ । दासी दूसरा घड़ा लेने गई । जब वह लौट रही थी, तब वह भी जमीन पर गिरा और फूट गया। तीसरा बार भी ऐसा ही हुआ। मुनि बोले - बहिन ! बड़ा नुकसान हो गया । इतना कीमती तैल ! तीनों घड़े फूट गए। कितना नुकसान ! बहिन बोली- महाराज ! मैंने अनुभव कर जान लिया है कि पदार्थ क्षणिक होता है, नश्वर होता है । वह शरणभूत नहीं होता। उसका संयोग होता है, वियोग होता है । एक दिन मिला था। आज चला गया । नुकसान कैसा? यह है पदार्थ की अनित्यता और अशरणता का साक्षात्कार । यह शाब्दिक नहीं, अनुभूतिपरक है । आदमी का शरीर के प्रति गहरा ममत्व है। उसका अधिकांश समय उसी को सजाने-संवारने में लग जाता है । उसकी मूर्छा इतनी गहरी है कि आत्मा और शरीर को एक ही मान बैठा है । शरीर को ही पूरा व्यक्तित्व मानकर चलता है । शरीर से भिन्न उसका अस्तित्व है, यह बात वह सोच भी नहीं सकता । जब तक यह बात रहती है तब तक आध्यात्मिकता नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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