Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 341
________________ 342 | जिनवाणी | 15,17 नवम्बर 2006 चाहती है। यही कारण है कि जैन धर्म की साधना में सर्वत्र (इच्छामि, पडिक्कमामि, इच्छामि खमासमणो' आदि के रूप में सर्वप्रथम 'इच्छामि' का प्रयोग होता है। ‘इच्छामि' का अर्थ है- 'मैं स्वयं चाहता हूँ' अर्थात् यह मेरी स्वयं अपने हृदय की स्वतंत्र भावना है। ‘इच्छामि का एक और भी अभिप्राय है- शिष्य गुरुदेव के चरणों में विनम्र भाव से प्रार्थना करता है कि- “भगवन्! मैं आपको वंदन करने की इच्छा रखता हूँ। अतः उचित समझें तो आज्ञा दीजिए। आपकी आज्ञा का आशीर्वाद पाकर मैं धन्य-धन्य हो जाऊँगा।" ऊपर की वाक्यावली में शिष्य वन्दन करने के लिए केवल अपनी ओर से इच्छा निवेदन करता है, सदाग्रह करता है, दुराग्रह नहीं। नमस्कार भी नमस्करणीय की इच्छा के अनुसार होना चाहिए। यह है जैन संस्कृति के शिष्टाचार का अन्तर्हृदय। यहाँ नमस्कार में भी इच्छा मुख्य है, उद्दण्डता पूर्ण बलाभियोग एवं दुराग्रह नहीं। आचार्य जिनदास कहते हैं “एत्थ वंदितुमित्यावेदनेन अप्पच्छंदता परिहरिता।'' 'इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विराहणाए" यह प्रारम्भ का सूत्र आज्ञा सूत्र है। इसमें गुरुदेव से ईर्यापथिक प्रतिक्रमण की आज्ञा ली जाती है। ‘इच्छामि' शब्द से ध्वनित होता है कि साधक पर बाहर का कोई दबाव नहीं है, वह अपने आप ही आत्मशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करना चाहता है और इसके लिए गुरुदेव से आज्ञा माँग रहा है। प्रायश्चित्त और दण्ड में यही तो भेद है। प्रायश्चित्त में अपराधी की इच्छा स्वयं ही अपराध को स्वीकार करने और उसकी शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित्त लेने की होती है। दण्ड में इच्छा के लिए कोई स्थान नहीं है। वह बलात् ही लेना होगा। दण्ड में दबाव मुख्य है। अतः प्रायश्चित्त जहाँ अपराधी की आत्मा को ऊँचा उठाता है, वहाँ दण्ड उसे नीचे गिराता है। सामाजिक व्यवस्था में दण्ड से भले ही कुछ लाभ हो, परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में उसका कुछ भी मूल्य नहीं है। यहाँ तो इच्छापूर्वक प्रसन्नता के साथ गुरुदेव के समक्ष पहले पापों की आलोचना करना और फिर उसका प्रतिक्रमण करना, जीवन की पवित्रता का मार्ग है। (५)अपने सदाचार के प्रति स्वाभिमान पूर्ण, गम्भीर वाणी से साधकभाव की जागृति होती है। व्याख्या- समणोऽहं संजय-विश्य.....मायामोन्सविवज्जिओ। यह सूत्र आत्मसमुत्कीर्तनपरक सूत्र है। "मैं श्रमण हूँ, संयत-विरत हूँ, पापकर्म का प्रत्याख्याता हूँ, अनिदान हूँ, दृष्टिसम्पन्न हूँ, मायामृषा विवर्जित हूँ- यह बहुत उदात्त, ओजस्वी भावों से भरा हुआ अन्तर्नाद है। यह अपने सदाचार के प्रति स्वाभिमान पूर्ण गंभीर वाणी है। संभव है स्वाभिमान पूरित शब्द सुनने में किसी को अहंकार पूरित भी लगे। आत्मिक दुर्बलता का निराकरण करने के लिए साधक को ऐसा स्वाभिमान सदा सर्वत्र ग्राह्य है, आदरणीय है। उच्च संकल्प भूमि पर पहुँचा हुआ साधक ही यह विचार कर सकता है कि मैं इतना ऊँचा एक महान् साधक हूँ, फिर भला अकुशल पापकर्म का आचरण कैसे कर सकता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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