Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 391
________________ 392 | जिनवाणी 115,17 नवम्बर 2006 आचार्य द्रोण लिखते हैं- "चरणकरणयोः कः प्रतिविशेषः? नित्यानुष्ठान धरणं, यत्तुप्रयोजने आपने क्रिया तत्करणमिति । तथा च व्रतादि सर्वकालमेव चर्यते, न पुनव्रतशून्यः कश्चित्कालः पिण्डविशुद्धयादि तु प्रयोजने आप क्रियते इति।" m प्रतिलेखना की विधि १. उड्ढ- उकडू आसन से बैठकर वस्त्र की भूमि से ऊँचा रखते हुए प्रतिलेखना करनी चाहिए। २. थिरं- वस्त्र को दृढ़ता से स्थिर रखना चाहिए। ३. अतुरियं- उपयोग-शून्य होकर जल्दी-जल्दी प्रतिलेखना नहीं करना चाहिए। ४. पडिलेहे- वस्त्र के तीन भाग करके उसको दोनों ओर से अच्छी तरह देखना चाहिए। पप्फोडे- देखने के बाद यतना से धीरे-धीरे झड़काना चाहिए। ६. पमज्जिज्जा- झड़काने के बाद वस्त्र आदि पर लगे हुए जीव को यतना से प्रमार्जन कर हाथ में लेना तथा एकान्त में यतना से परठना चाहिए। (उत्तराध्ययन २६वाँ अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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