Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 339
________________ जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 ९. किसी की गलती प्रतीत होने पर उसके बिना माँगे, स्वयं आगे होकर सदा के लिए भूल जाना वास्तविक क्षमा है। उत्तर (१) की हुई भूल को नहीं दोहराने से बड़ा कोई प्रायश्चित्त नहीं । व्याख्या- 'तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।' साधक के जीवन में कभीकभी तीन निर्बलताएँ घर कर जाती हैं- १. मृत्यु का भय २. लक्ष्य प्राप्ति में स्वयं को असमर्थ जानना । ३. की हुई भूल से रहित होने में संदेह । साधक वर्ग से भी भूल होना सहज है, पर भूल को भूल मानना प्रथम साधकता है और प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धीकरण कर उस भूल को न दोहराना श्रेष्ठ साधकता है। कोई भी भूल होने पर साधक को प्रथम तो मन में ग्लानि के भाव उत्पन्न होते हैं, यह पश्चात्ताप रूपी प्रतिक्रमण है । पश्चात्ताप का दिव्य निर्झर आत्मा पर लगे पापमल को बहाकर साफ कर देता है। तत्पश्चात् साधक उस भूल की आत्मसाक्षी से निंदा करता है, गुरुसाक्षी से गर्हा करता है और उस दूषित आत्मा का सदा-सदा के लिए त्याग करता है अर्थात् कभी न दोहराने की प्रतिज्ञा से कटिबद्ध होता है, यही सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है। 'मिच्छामि दुक्कडं' भी जैन संस्कृति का महत्त्वपूर्ण शब्द है । यह एक शब्द सभी पापों को धोने की क्षमता रखता है, पर उसके जो भविष्य में उस पाप को नहीं करता है । 'तस्स खलु दुक्कडं मिच्छा' वस्तुतः उसी साधक का दुष्कृत निष्फल होता है। कारण कि आलोचना के पीछे पश्चात्ताप के भाव अति आवश्यक हैं और अन्तःकरण से पश्चात्ताप हो जाये तो वह भूल कभी दुबारा हो ही नहीं सकती। (उदाहरण - मृगावती) 340 'से य परितप्पेज्जा' व्यवहार अ. ७-१७९-१८० अर्थात् परिताप करने वाले को, गण से पृथक् करना ( ४था, ५वाँ) नहीं कल्पता - कथन भी यही सूचित करता है कि अन्तःकरण से पश्चात्ताप सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है। (२) निर्दोषता (संबंधित दोष की अपेक्षा) के क्षण में ही दोष ध्यान में आता है । व्याख्या-आवश्यक सूत्र का प्रथम सामायिक आवश्यक - आलोउं....तस्स उत्तरी करणेणं, पायच्छित्त करणेणं.... आत्मा को मन-वचन काया की पाप-प्र -प्रवृत्तियों से रोककर आत्मकल्याण के एक निश्चित ध्येय की ओर लगा देने का नाम सामायिक है। इस साधना को साधने वाला साधक स्वयं को बाह्य सांसारिक दुष्प्रवृत्तियों से हटाकर आध्यात्मिक केन्द्र की ओर केन्द्रित कर लेता है और यह क्षण निर्दोषता का होता है। वर्तमान में निर्दोषता नहीं होगी तब तक दोष नजर नहीं आयेंगे । क्रोध करते समय क्रोध कभी बुरा नहीं लगता । समता के क्षण में ही ममता की भयंकरता प्रतीत होती है। भूतकाल की भूल को न दोहराने का व्रत लेने से ही वर्तमान की निर्दोषता सुरक्षित हो जाती है। शराब के नशे में धुत व्यक्ति को शराब बुरी नहीं लगती है, जब वह नशा उतर जाता है तब ही उस पदार्थ की हानि पर अपना ध्यान लगा पाता है। ठीक उसी प्रकार निर्दोषता के क्षण में ही दोष ध्यान में आते हैं। अतः जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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