Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 348
________________ 349 ||15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी प्रशंसा करते हुए खाने से संयम कोयले के समान हो जाता है। इससे तीसरी समिति में दोष लगता है, उस वस्तु के प्रति राग रखने से अपरिग्रह महाव्रत भी दूषित होता है। .. (७) चारों प्रहर में स्वाध्याय नहीं करना- अतिचार संख्या १२वाँ काले न कओ सज्झाओ- साधक को ज्ञानावरणीय आदि कर्मो की निर्जरा के लिए, अप्रमत्तता को बनाये रखने के लिए, चारों काल में स्वाध्याय करना चाहिए। अगर वह चारों प्रहर में स्वाध्याय नहीं करता है तो ज्ञान का अतिचार लगता है। ज्ञान के प्रति बहुमान, आदर के भाव होने पर तो स्वाध्याय निरन्तर होता है। ज्ञान आराधना के प्रति लापरवाह हो स्वाध्याय नहीं करने से ज्ञानातिचार लगता है। (८) अयतना से बैठना- अतिचार संख्या ११८-१२० कायगुप्ति नहीं रखना तथा १००-१०१ निक्षेपणा समिति का पालन न करना। साधु का जीवन यतना प्रधान जीवन है। उठना, बैठना, सोना, खाना, चलना आदि सभी कार्यो में यतना अत्यावश्यक है। उपासक वर्ग के लिए ५ समिति के साथ ही ३ गुप्ति भी ध्यातव्य है। अयतना से बैठना, हाथ-पैर फैलाना, समेटना आदि प्रवृत्तियाँ काय गुप्ति की खण्डना करती हैं। अतः साधक को दिन में विवेकपूर्वक देखकर तथा रात्रि में पूँजकर बैठना चाहिए। यहाँ तक कि रात्रि में दीवार का सहारा भी लेना पड़े तो बिना दीवार को पूँजे, सहारा लेना कायअगुप्ति है। काया भी संयम में एक सहयोगी साधन ही है। उसमें अयतना चौथी समिति में भी दोष का कारण है। (९) शीतल वायु के स्पर्श से सुख अनुभव करना- अतिचार क्रम संख्या ४४ स्पर्शनेन्द्रिय असंयम । साधक को वीतराग भगवन्तों ने आगम में स्थान-स्थान पर इन्द्रियों को वश में रखने की प्रेरणा दी है। संयम भी तभी सुरक्षित रह सकता है। अतः साधक कछुए के समान इन्द्रियों को गोपित करते हुए चले। संयमी साधक ग्रीष्मऋतु में शीतलवायु आने के स्थान को ढूँढ कर वहाँ बैठकर सुख का अनुभव करता है तो अपरिग्रह महाव्रत में दोष लगता है। शरीर पर मोह होना भी परिग्रह का ही रूप है। प्रश्न अन्तर बताइये- १. पगामसिज्जाए एवं निगामसिज्जाए में, २. चरण सत्तरी एवं करणसत्तरी में, ३.कायोत्सर्ग एवं कायक्लेश में, ४. श्रद्धा,प्रतीति एवं रुचि में, ५. संकल्प एवं विकल्प में, ६. अकाले कओ सज्झाओ एवं असज्झाए सज्झाइयं में। उत्तर- १. पगामसिज्जाए एवं निगामसिज्जाए में अन्तर- 'पगामसिज्जाए' का संस्कृत रूप ‘प्रकामशय्या' होता है। शय्या शब्द शयन वाचक है और प्रकाम अत्यन्त का सूचक है। अतः प्रकामशय्या का अर्थ होता है- अत्यन्त सोना, चिरकाल तक सोना (उसमें)। इसके अतिरिक्त प्रकामशय्या का एक अर्थ और भी है, उसमें 'शेरेतेऽस्यामिति शय्या' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘शय्या' शब्द संथारे के बिछौने का वाचक है। और प्रकाम उत्कट अर्थ का वाचक है। इसका अर्थ होता है- प्रमाण से बाहर बड़ी एवं गद्देदार, कोमल गुदगुदी शय्या। यह शय्या साधु के कठोर एवं कर्मठ जीवन के लिए वर्जित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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