Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 378
________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 379 परिशिष्ट श्रमण प्रतिक्रमण में साधु-साध्वी के १२५ अतिचार . (क्रम संख्या भिन्न भी हो सकती है) ज्ञान के १४ अतिचार १. वाइद्धं - आगम पाठों में जो क्रम है उसे छोड़कर अर्थात् पद, अक्षर को आगे-पीछे करके पढ़ा हो। २. वच्चामेलियं- एक सूत्र का पाठ अन्य सूत्र में मिलाकर पढ़ा हो। ३. हीणक्खरं- अक्षर घटा करके बोला हो। ४. अच्चक्चखरं- अक्षर बढ़ा करके बोला हो। पयहीणं- पद को कम करके पढ़ा हो। ६. विणयहीणं- विनयरहित होकर पढ़ा हो। ७. जोगहीणं- मन, वचन व काया के योगरहित पढ़ा हो। ८. घोसहीणं- उदात्त आदि के उचित घोष बिना पढ़ा हो। सुठुदिण्णं- शिष्य की उचित शक्ति से न्यूनाधिक ज्ञान दिया हो। १०. दुठ्ठपडिच्छियं- दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो। ११. अकाले कओ सज्झाओ- अकाल में स्वाध्याय किया हो। १२. काले न कओ सज्झाओ- काल में स्वाध्याय न किया हो। १३. असज्झाए सज्झाइयं- अस्वाध्याय के समय में स्वाध्याय किया हो। १४. सज्झाइए न सज्झाइयं- स्वाध्याय के समय में स्वाध्याय न किया हो। सम्यक्त्व (दर्शन) के ५ अतिचार १५. शंका- श्री जिनवचन में शंका की हो। १६. कंखा- परदर्शन की आकांक्षा की हो। १७. वितिगिच्छा- धर्म के फल में संदेह किया हो। १८. परपासंडपसंसा- परपाखण्डी (मिथ्यामतियों) की प्रशंसा की हो। १९. परपासंडसंथवो- परपाखण्डी (मिथ्यामतियों) का परिचय किया हो। संलेखना के ५ अतिचार २०. इहलोगासंसप्पओगे - इस लोक में सुख व ऋद्धि की इच्छा करना। २१. परलोगासंसप्पओगे- परलोक में देवता आदि के सुख की कामना करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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