Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 358
________________ 359 | 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 3591 जैसे-किसी ने स्नान किया और स्नान करने के बाद कभी भूलवश कीचड़ आदि अशुचि लग गई तो उस अशुचि स्थान की वह व्यक्ति शुद्ध जल से शुद्धि करता है, वैसे ही आत्मिक स्नान करने वाला साधक जो कि व्रतों को अंगीकार करके व्रतों की निर्दोष पालना में आगे बढ़ रहा है, किन्तु कभी प्रमादवश कोई स्खलना हो जाने पर उस स्खलित दोष की निन्दना कर उस दोष से पीछे हटकर पुनः निर्दोष आराधना में आगे बढ़ता है। ५. जैसे स्नान करते किसी व्यक्ति के शरीर में कोई व्रण (घाव) लगा हुआ है तो वह मलहम आदि दवा लगाकर उसका उपचार करता है, उसी प्रकार आत्मिक स्नानकर्ता के व्रतों में दोष रूप व्रण (घाव) होने पर वह प्रायश्चित्त रूप औषध का प्रयोगकर उस भाव व्रण की चिकित्सा करता है। ६. शारीरिक स्नान करने वाला व्यक्ति जैसे स्नान कर लेने के बाद तेल, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थ लगाकर विशेष रूप से शरीर को सजाता है, वैसे ही भाव व्रण आदि को दूर कर लेने के बाद आत्मिक स्नान करने वाला साधक छठे आवश्यक में कुछ प्रत्याख्यान अंगीकार करके विशेष रूप से गुणों को धारण करके अपने संयमी-जीवन की आन्तरिक तेजस्विता में अभिवृद्धि करता है। २. आवश्यक आत्मिक शल्यक्रिया है- १. जैसे किसी व्यक्ति के किसी व्यसन आदि बाह्य निमित्त के कारण तथा उपादान रूप आभ्यन्तर कारण से कैंसर की गाँठ आदि के रूप में कोई बड़ा रोग हो गया। वह रोगी व्यक्ति विचार करता है कि इस रोग को मुझे आगे नहीं बढ़ाना है। उसी तरह कर्म के कैंसर रोग से पीड़ित व्यक्ति मन में विचार करता है कि अब मैं रोग के कारण हिंसा, झूठ आदि किसी भी सावध व्यापार का सेवन नहीं करूंगा। २. वह रोगी व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ लोगों को देखकर विचार करता है कि ये लोग धन्य हैं, जिन्होंने इस भव, परभव में शुभ कर्म किये हैं और जीवन में कोई कुव्यसन का सेवन नहीं किया है, जो अभी साता से, शान्ति से जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उसी तरह आत्म शल्यक्रिया का साधक पूर्ण आत्मिक स्वस्थता को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तों को देखकर, उनके गुणों से प्रभावित होकर, उनके गुणों की स्तुति, उनके गुणों का उत्कीर्तन करता है। ३. कोई व्यक्ति अभी भी जीवन में कोई व्यसन नहीं रखता है, किसी तरह के अशुभ कर्म करके असाता-वेदनीय का बंध नहीं करता है, अपने स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखता हुआ रहता है, उसे देखकर रोगी व्यक्ति उसके प्रति विनय तथा आदर का भाव रखता है, उससे शिक्षा लेता है, उसी प्रकार आत्मिक शल्य क्रिया में आगे बढ़ता हुआ व्यक्ति आत्मिक स्वस्थता के क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए गुरु भगवन्तों को देखकर उनसे सीख लेता है तथा उनके प्रति विनय भाव रखता हुआ उनके गुणों के प्रति गुणवत् प्रतिपत्ति करता है। ४. जैसे शारीरिक शल्य क्रिया करता हुआ व्यक्ति अपने मन में स्वकृत दोषों के प्रति ग्लानि तथा निन्दा के भाव लाता है और सोचता है अब ऐसी गलती नहीं करूँगा, जिससे मुझे रोगी बनना पड़े। वैसे ही आत्मिक शल्यक्रिया करने वाला साधक अपने आभ्यन्तर आत्मिक रोगों के लिए मन में ग्लानि व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394