Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 363
________________ जिज्ञासाएँ और समाधान प्रतिक्रमण विशेषाङ्क के प्रकाशन के पूर्व हमने प्रतिक्रमण विषयक प्रश्न / जिज्ञासाएँ आमन्त्रित की थीं। हमें श्री पारसमल जी चण्डालिया-ब्यावर, श्री मनोहरलाल जी जैन-धार (म.प्र.), श्री जशकरण जी डागा-टोंक आदि से जिज्ञासाएँ प्राप्त हुईं, जिनका समाधान गुरुकृपा से यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। -सम्पादक जिज्ञासा - आवश्यकसूत्र को अंगबाह्य माना जाता है तो यह गणधरकृत है या स्थविरकृत ? स्थविरकृत मानने में बाधा है, क्योंकि स्वयं गणधर आवश्यक करते हैं। यदि गणधर कृत मानें तो अंग प्रविष्ट में स्थान क्यों नहीं दिया? 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 364 समाधान - प्रश्न के समुचित समाधान के लिये हमें अंग प्रविष्ट व अंग बाह्य की भेद रेखा (विभाजन रेखा ) को देखना होगा इसमें तीन अन्तर बताए गए Jain Education International हर रकवा आसा मुक्क- वागरणाओ वा । ध्रुव चलविसेस ओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।। - विशेषावश्यक भाष्य गाथा, ५५२ १. अंगप्रविष्ट गणधरकृत होते हैं, जबकि अंग बाह्य स्थविरकृत अथवा आचार्यो द्वारा रचित होते हैं। २. अंगप्रविष्ट में जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर तीर्थंकरों द्वारा समाधान ( और गणधरों द्वारा सूत्र रचना) किया जाता है, जबकि अंग बाह्य में जिज्ञासा प्रस्तुत किए बिना ही तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादन होता है। ३. अंगप्रविष्ट ध्रुव होता है, जबकि अंगबाह्य चल होता है। अंगप्रविष्ट में तीनों बातें लागू होती हैं और एक भी कमी होने पर वह अंग बाह्य ( अनंग प्रविष्ट) कहलाता है। पूर्वों में से निर्यूढ दशवैकालिक, ३ छेद सूत्र, प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार सूत्र, नन्दी सूत्र आदि भी तीर्थंकरों की वाणी गणधरों द्वारा ही सूत्र निबद्ध है- केवल उस रूप में संकलित/संगृहीत, सम्पादित करने वाले पश्चादुवर्ती आचार्य अथवा स्थविर आदि हैं अर्थात् अंगबाह्य भी गणधरकृत का परिवर्तित रूप हो सकता है, पर उनकी रचना से निरपेक्ष नहीं । भगवती शतक २५ उद्देशक ७ आदि से यह तो पूर्ण स्पष्ट है कि छेदोपस्थापनीय चारित्र वाले को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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