Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 372
________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी परम्परा में १० पूर्वी तक की समस्त रचना (वि.नि.५८४ तक) तथा पश्चाद्वर्ती पूर्वी (वी.नि.१००० तक) की वह रचना जो १०पूर्वी तक की रचना की विरोधी नहीं है- आगम में स्वीकृत है। २४वें तीर्थंकर के शासनवर्ती साधु को उभयकाल प्रतिक्रमण अनिवार्य होने से आवश्यक सूत्र तीर्थंकर के समय में भी विद्यमान था। हरिभद्रसूरि का समय वी.नि.१२२७ से १२९७ तक (वि.७५७ से ८२७) है। जबकि द्वितीय भद्रबाहु ने वी.नि.१०३२ में आवश्यक नियुक्ति-जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने वी.नि. १०५५-१११५ में विशेष आवश्यक भाष्य व जिनदास महत्तर ने वी.नि. १२०३ में आवश्यक चूर्णि की रचना की। तत्पश्चात् हरिभद्रसूरि ने 'शिष्यहिता वृत्ति' नामक आवश्यक सूत्र की टीका लिखी, जिसमें नियुक्ति, भाष्य व चूर्णि तीनों का उपयोग हुआ। जिज्ञासा- प्रतिक्रमण का प्रथम आवश्यक सामायिक है। सामान्यतः सामायिक ग्रहण करने के पश्चात् ही प्रतिक्रमण की आज्ञा ली जाती है। इस स्थिति में पहले आवश्यक सामायिक' की क्या आवश्यकता है? यदि करेमि भंते के पाठ से भी सामायिक हो जाती है तो सामायिक लेते समय विधि करने की क्या उपयोगिता है? समाधान- सामायिक की साधना नवमें व्रत की आराधना है, जबकि आवश्यक सूत्र की उपादेयता सामायिक सहित सभी व्रतों के लगे अतिचारों की शुद्धि करने में है। रेल की यात्रा में नवमें व्रत की आराधना अर्थात् १८ पाप के त्याग रूपी संवर साधना नहीं हो सकती जबकि आवश्यक सूत्र के सभी आवश्यक यानी सामायिक भी आवश्यक हो सकता है। वहाँ प्रथम आवश्यक में कायोत्सर्ग अर्थात् काया की ममता छोड़कर अतीत के अतिचारों का चिन्तन किया जाता है, उस कायोत्सर्ग की भूमिका में ‘करेमि भंते' का पाठ बोल वर्तमान निर्दोषता में पूर्व के दोषों का आलोकन संभव होना ध्वनित किया जाता है। अतः सामायिक में विधि करना अनिवार्य है और कायोत्सर्ग की भूमिका में 'करेमि भंते' का पाठ बोल प्रथम सामायिक आवश्यक में सामायिक का पच्चक्खाण करने के लिए नहीं, अपितु 'समता की भूमिका में समस्त पापों की शुद्धि संभव' पर आस्था रखकर अतिचार खोजना उपयोगी है। दोनों अलग-अलग है। जिज्ञासा- लोगस्स के पाठ के संबंध में दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ में प्रतिपादित किया गया है कि लोगस्स की रचना कुन्दकुन्दाचार्य ने की है। उसको पढ़ने से ज्ञात होता है कि प्रथम पद को छोड़कर सभी पद एक-दो शब्दों के परिवर्तन के अलावा समान ही हैं। क्या आवश्यक सूत्र में प्राप्त लोगस्स का पाठ कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित है? समाधान- दिगम्बर ग्रन्थों में शौरसेनी प्राकृत का उपयोग हुआ है जबकि श्वेताम्बर वाङ्मय अर्धमागधी भाषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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