Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 343
________________ 344 जिनवाणी ||15.17 नवम्बर 2006|| समान विमुक्त बनूँ। (७) खामेमि सव्वे जीवा- क्रोध विजय, सव्वे जीवा खमंतु मे- मान विजय, मित्ती मे सव्वभूएसुमाया विजय, वेरं मज्झं न केणइ- लोभ विजय का उपाय है। व्याख्या- दशवैकालिक सूत्र में बताया गया है कि 'कोहो पीई पणा सेइ' क्रोध से प्रीति का नाश होता है। 'खामेमि सव्वे जीवा' में जीवमात्र पर प्रेम-प्रीति का महान् आदर्श हमारे सामने उपस्थित होता है। भीतर रहे हुए क्रोध का शमनकर मैं जीवमात्र को खमाता हूँ। क्रोध उपशान्त हुए बिना, क्षमा का भाव आ ही नहीं सकता। आत्मीयता के धरातल पर ही साधक का जीवन पल्लवित एवं पुष्पित होता है। उत्तराध्ययन के २९वें अध्ययन में बताया- 'कोहविजएण खंतिं जणयइ' क्रोध को जीतने से क्षमा गुण की प्राप्ति होती है। जब तक छद्मस्थ अवस्था है, तब तक सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं। सभी में दोष विद्यमान हैं तो सभी में गुण विद्यमान हैं। कम-ज्यादा प्रमाण हो सकता है। किन्तु दोषी के प्रति द्वेष करना भी तो नये दोष को जन्म देता है। अतः तत्क्षण दोषी पर द्वेष न करते हुए, उस पर माध्यस्थ भाव रखकर सम्यक् चिन्तन द्वारा मन को मोड़ना और सामने वाला कुछ कहे उसके पहले स्वयं आगे होकर सदा के लिये उसे क्षमा कर देना। यही तो क्रोध विजय है, जो 'खामेमि सव्वे जीवा' द्वारा घटित होता 'सव्वे जीवा खमंतु मे' अर्थात् सभी जीव मुझे क्षमा करें। इस पद में लघुता का भाव दिखाई देता है। किसी कवि ने कहा है- 'झुकता वही है जिसमें जान है और अकड़पन तो मुर्दे की खास पहचान है।' “अहंकारी दुःखी थवा तैयार छ, पण झुकी जवा तैयार नथी।'' अहंकारी व्यक्ति कभी नमना, झुकना पसंद नहीं करता, क्योंकि उसकी मान्यता है-"I am Something" जब तक जीवन में लघुता नहीं आती, तब तक झुकना संभव नहीं है। 'सव्वे जीवा खमंतु मे' द्वारा साधक मृदुता से परिपूर्ण होकर कहता है- मैंने किसी का अपराध किया हो तो मैं क्षमायाचना करता हूँ। आप मुझे क्षमा करें। उत्तराध्ययन में बताया 'माणविजएण मद्दवं जणयइ।' मृदुता के साथ क्षमा माँगता है, अतः मान विजय भी उक्त पद द्वारा घटित होता है। मित्ती मे सव्वभूएसु- दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ८ में बताया है- 'माया मित्ताणि णासेइ' मात्रा मित्रता का नाश करने वाली है। जहाँ कपट है, दंभ है, वहाँ मैत्री कैसी? और जहाँ मैत्री है वहाँ कपट कैसा? वहाँ तो सरलता है, स्वच्छता है, सहृदयता है, निष्कपटता है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना है। कोई लुकाव-छिपाव नहीं है। केवल आत्मिक आत्मीयता है। अपनत्व की अनन्य अनुभूति है। जहाँ अपनत्व है, वहाँ कपट नहीं। मित्रता के लिए सरलता होनी जरूरी है- 'मित्ती मे सव्व भूएसु' पद में सरलता झलकती है, जो मान विजय से ही प्राप्त होती है। वे मज्झं ण केणइ- लोभ विजय का सूचक है। लोभ को पाप का बाप बताया है। प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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