Book Title: Jinabhashita 2009 10 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ करुणारस और शान्तरस में भेद - 2 आचार्य श्री विद्यासागर जी करुणा तरल है, बहती है पर से प्रभावित होती झट-सी। शान्त-रस किसी बहाव में बहता नहीं कभी जमाना पलटने पर भी जमा रहता है अपने स्थान पर। इस से यह भी ध्वनि निकलती है कि करुणा में वात्सल्य का मिश्रण सम्भव नहीं है और वात्सल्य को हम पोल नहीं कह सकते न ही कपोल-कल्पित। महासत्ता माँ के गोल-गोल कपोल-तल पर पुलकित होता है यह वात्सल्य। करुणा-सम वात्सल्य भी द्वैत-भोजी तो होता है पर, ममता-समेत मौजी होता है, इसमें बाहरी आदान-प्रदान की प्रमुखता रहती है, भीतरी उपादान गौण होता है यही कारण है, इसमें अद्वैत मौन होता है। करुणा-रस जीवन का प्राण है घम-घम समीर धर्मी है। वात्सल्य-जीवन का त्राण है धवलिम नीर-धर्मी है। किन्तु, यह द्वैत-जगत की बात हुई, शान्त-रस जीवन का गान है मधुरिम क्षीर-धर्मी है। करुणा-रस उसे माना है, जो कठिनतम पाषाण को भी मोम बना देता है, वात्सल्य का बाना है जघनतम नादान को भी सोम बना देता है। किन्तु, यह लौकिक चमत्कार की बात हुई, शान्त-रस का क्या कहें, संयम-रत धीमान को ही 'ओम्' बना देता है। जहाँ तक शान्त रस की बात है वह आत्मसात् करने की ही है कम शब्दों में निधेष-मुख से कहूँ सब रसों का अन्त होनाहीशान्त रस है। यूँ गुनगुनाता रहता सन्तों का भी अन्तः प्रान्त वह। धन्य! मूकमाटी (पृष्ठ १५६-१५७) से साभार मूकमाटी (पृष्ठ १५९-१६०) से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 36