Book Title: Jinabhashita 2009 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ भोक्तारं गछतु भूम्यां गछतु स्वाहा।" इस मंत्र के नीचे लिखा है- "इस मंत्रविद्या को जो पढ़ता है, सुनता है, उसको सात वर्ष तक साँप नहीं दिखेगा और काटेगा भी नहीं और काटेगा भी तो शरीर में जहर नहीं चढ़ेगा।" (लघुविद्यानुवाद / द्वितीय संस्करण / पृष्ठ १२१)। इस मंत्र को केवल पढ़ना या सुनना है। इसमें न अष्ट द्रव्य की आवश्यकता है, न काले उड़द पीले सरसों, नागमोहनी लकड़ी आदि अभिचारसामग्री की, न किसी मान्त्रिक या विधानाचार्य की। शब्द भी इसके बड़े मनोरंजक हैं, जैसे- 'इलवित्ते, तिलवित्ते, इल्ला, विल्ला, चक्का, वक्का---।' पता नहीं ये किस भाषा के शब्द हैं और इनका क्या अर्थ है? शायद इन अर्थहीन शब्दों को साँप समझता हो। केवल यन्त्र द्वारा सर्पभय का निवारण सर्पभय के निवारण हेतु यन्त्रप्रयोग मन्त्र से भी सरल उपाय है। उपर्युक्त लघुविद्यानुवाद ग्रन्थ में निम्नलिखित सर्पभयहर अस्सीया (योग करने पर ८० की संख्यावाला) यन्त्र का उल्लेख है ३६ 9 Mr ३४ ग्रन्थ में लिखा है कि इस यन्त्र को घर की दीवार पर ऐसी जगह सिन्दूर से लिखा जाय, जहाँ सर्प की दृष्टि पड़ जाय। अथवा यह यंत्र काँसे की थाली में लिखा हुआ तैयार रखें और जब सर्प निकले, तब उसे थाली दिखला दी जाय। इससे सर्प घर को छोड़कर चला जायेगा। (पृष्ठ २७९-२८०)। इससे यह भी ध्वनित होता है कि जैसे अन्य विघ्नविनाशक यंत्र भूर्जपत्र या कागज पर लिखकर गले में पहन लिये जाते हैं या भुजा पर बाँध लिये जाते हैं, वैसे ही इस यंत्र को भी गले या बाँह में धारण कर लिया जाय, तो कहीं भी जाने पर सर्पभय नहीं रहेगा। पुण्यकर्मोदय ही सर्वानिष्टयोग-निवारण का एकमात्र उपाय उपर्युक्त मन्त्र और यन्त्र भी परसमयोक्त (अजैनशास्त्रोक्त) हैं, यह धवला, जयधवला आदि के पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है। तथा ये पुण्यकर्म के उदय के अभाव में अकार्यकारी हैं और पुण्यकर्मोदय होने पर इनके विना भी समस्त अनिष्ट योग टल जाते हैं, यह जिनवचन है। यथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार श्री शुभचन्द्र ने गाथा ३२० की टीका में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया तावच्चन्द्रबलं ततो ग्रहबलं ताराबलं भूबलं, तावत्सिध्यति वाञ्छितार्थमखिलं तावज्जनः सज्जनः। मुद्रामण्डलमन्त्रतन्त्रमहिमा तावत्कृतं पौरुषं यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यक्षये क्षीयते॥ अनुवाद- चन्द्रमा का बल तभी तक चलता है, ग्रहों का बल तभी तक कार्यकारी होता है, और भूमि का बल तभी तक काम करता है, वांछित पदार्थ भी तभी तक प्राप्त होते हैं, मनुष्य भी तभी तक सज्जन रहता है, मुद्रा, मण्डल, तंत्र, मंत्र की महिमा भी तभी तक रहती है तथा पौरुष भी तभी तक सफल होता है, जब तक पुण्य का उदय रहता है। पुण्य का क्षय होने पर ये सब बल क्षीण हो जाते हैं। यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि पुण्योदय के अभाव में ग्रह, नक्षत्र, व्यन्तरादि देव-देवियाँ, तथा मुद्रा, मण्डल, तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र आदि उपाय मनुष्य के किसी भी अनिष्ट योग का निवारण नहीं कर सकते। इसलिए जिनभक्ति आदि शुभोपयोग के द्वारा पुण्यार्जन करनेवाला जीव ही कालसर्पादि समस्त अनिष्ट योगों 6 जुलाई 2009 जिनभाषित

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