Book Title: Jinabhashita 2009 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ लौकिकशास्त्र, बाह्यशास्त्र या दुःश्रुति कहा गया है। (देखिये, मेरा सम्पादकीय लेख/जिनभाषित / जून २००९)। इसके अतिरिक्त जातक के सिर या शरीर पर आज घुमाकर बाहर फेंके गये काले उड़द या पीले सरसों आदि में ऐसे किसी इलेक्ट्रानिक पावर का होना सिद्ध नहीं है, जो साल दो साल बाद सम्पर्क में आनेवाले कालसर्प को रिमोट कण्ट्रोल से रोक दे। ऐसी दूसरी शक्ति ईश्वरीय शक्ति ही मानी जा सकती है, किन्तु उसे मानना जीवों के भाग्यविधायक, सर्वनियन्ता, अन्तर्यामी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा, जिसे जिनशासन अस्वीकार करता है। इन दो प्रमाणों से सिद्ध है कि अभिचार या तान्त्रिक अनुष्ठान के द्वारा कालसर्पयोगनिवारण की मान्यता जिनागम के विरुद्ध एवं अवैज्ञानिक है। व्यन्तरादि देव भी कालसर्पयोगनिवारण में समर्थ नहीं कीर्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है एवं पेच्छंतो वि हु गह-भूय-पियास-जोइणी-जक्ख। सरणं मण्णइ मूढो सुगाढ-मिच्छत्त-भावादो॥ २७॥ अनवाद- संसार में कोई भी व्यक्ति जीव का शरण (दःख और मत्य से बचानेवाला) नहीं है. ऐसा देखते हुए भी मूढ (मिथ्यादृष्टि जीव) प्रगाढ़ मिथ्यात्व के प्रभाव से ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी (चण्डिका आदि देवियों) और यक्ष को शरण (शरणं श्रियते अर्तिपीडितेनेति शरणम्- का.अ./ टीका / गा. २७) अर्थात् रक्षक मानता है। इसका भावार्थ प्रकट करते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं- "मनुष्य देखता है कि संसार में कोई शरण नहीं है, एक दिन सभी को मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है--- । फिर भी उसकी आत्मा में मिथ्यात्व का ऐसा प्रबल उदय है कि उसके प्रभाव से वह अरिष्ट-निवारण के लिए ज्योतिषियों के चक्कर में फंस जाता है और सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नाम के ग्रहों को तथा भूत, पिशाच, चण्डिका वगैरह व्यन्तरों को शरण मानकर उनकी आराधना करता है।" व्यन्तरादि देवों और ग्रहों का नाम लेकर उनसे यह निवेदन करना कि आप प्रसन्न हों (वः प्रीयन्ताम्) और मेरे कालसर्पयोग का निवारण करें (मम कालपर्सयोगं निवारयन्तु), यह उनकी आराधना ही है। 'आराधना' शब्द प्रसन्न करने का ही वाचक है। यह शब्द राध् धातु से व्युत्पन्न है, और उसका अर्थ प्रसन्न करना ही इस तरह व्यन्तरादि देवों की आराधना को जिनागम में मिथ्यात्व कहा गया है- "क्षेत्रपाल-चण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामढत्वं भण्यते।" (द्र.सं./टीका/गाथा ४१ / पृ.१०५)। 'कालसर्पयोगनिवारणपूजा' में इस मिथ्यात्व को उच्च सिंहासन पर (शान्तिधारा में) प्रतिष्ठित किया गया है। केवलमन्त्र द्वारा कालसर्पयोग-निवारण उक्त पूजा से अत्यन्त सरल तो कालसर्पयोगनिवारण मंत्र है। द्वादशांगश्रुत के १२ वें अंग दृष्टिवाद में विद्यानुवाद नाम का एक पूर्व है। उसमें सात सौ अल्पविद्याओं (मन्त्रों) और पाँच सौ महाविद्याओं का विधिसहित वर्णन था। वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। फिर भी कहीं से मंत्रों का संग्रह करके एक लघुविद्यानुवाद नाम का ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है और उसे विद्यानुवादपूर्व पर आधारित बतलाया गया है। किन्तु, उसमें संकलित मंत्रों की भाषा और शब्दों के प्रयोग से यह सिद्ध नहीं होता कि वह द्वादशांगश्रुत जितना प्राचीन है। उसमें एक सर्पयोगनिवारक मन्त्र दिया है, जो इस प्रकार है "ऊँ इलवित्ते तिलवित्ते डुवे डुवालिए दुस्से दुस्सालिए जक्के जक्करणे मम्मे मम्मरणे संजक्करणे अघे अनघे अपायंतीए श्वेतं श्वेते तंडे अनानुरक्ते ठः ठः ऊँ डल्ला विल्ला चक्का वक्का कोरडा कोरडर घोरड़ति मोरडा मोरड़ति अट्टे अट्टरुहे अट्टट्टोंडु रुहे सप्पे सप्प रुहे सप्प होंडु रुहे नागे नागरुहे नाग थोडु रुहे अछे अछले विषत्तंडि विषत्तंडि त्रिंडि त्रिंडि स्फुट-स्फुट स्फोटय स्फोटय इदा विषम विषं गछतु दातारं गछतु जुलाई 2009 जिनभाषित 5Page Navigation
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