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स्वात्मोपलब्धि के इच्छुक भव्यात्माओं के लिए
मुनि श्री विनीतसागर जी आगमग्रन्थों में आचार्यों ने सम्यग्दर्शन को किसी । सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के उत्पाद का और प्रथमोपशम विवक्षा या नयों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित | सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के व्यय का कारण है। अब यहाँ किया है। आत्महितैषी विवेकी स्याद्वादियों को कथंचित् | कोई पाठक शंका कर सकता है कि आपने, जो ऊपर उसको स्वीकारने में कोई बाधा नहीं। सम्यग्दर्शन का हेतु के क्षय होने का नाम ही कार्य का उत्पाद है, यह वास्तविक स्वरूप समझने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द जो कहा था, वह यहाँ पर घटित नहीं होता, क्योंकि महाराज जी की प्रवचनसार की गाथा नं० १०० की आचार्य यहाँ हेतु तो विद्यमान है, उसका नाश कहाँ हुआ? अमृतचन्द्रजी एवं आचार्य जयसेनजी महाराज की टीका समाधान- आपने, जो यह शंका उठाई है, वह को आप स्वयं देखिए। यहाँ केवल गाथा एवं अर्थ दिया उचित नहीं, क्योंकि हेतु का लक्षण और उसके भेदों
को आप यदि ध्यान में रखते. तो यह शंका ही नहीं ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। होती। आचार्य माणिक्यनन्दि जी ने परीक्षामुख न्यायग्रन्थ उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण॥ में तृतीय परिच्छेद में सूत्र नं० ११ में हेतु का लक्षण
अर्थ- उत्पाद व्ययरहित नहीं होता, और व्यय | कहा है जो इस प्रकार है । उत्पादरहित नहीं होता है। तथा उत्पाद और व्यय, ध्रौव्य साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः॥ ११॥ रूप पदार्थ के बिना नहीं होते हैं।
अर्थ- जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित १. चारों गतियों का मिथ्यादृष्टि भव्यजीव, जब | होता है अर्थात् जो साध्य के बिना नहीं हो सकता, उसे प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है, तो पाँच | हेतु कहते हैं। सूत्र नं० १२ में अविनाभाव का लक्षण लब्धियों में अन्तिम करणलब्धि के अन्तर्गत तीन करण | कहा हैकरता है। उसमें अनिवृत्तिकरण सम्यग्दर्शन पर्याय के | सहक्रमभवनियमोऽविनाभावः ॥१२॥ उत्पाद का कारण है और मिथ्यात्वपर्याय के व्यय का अर्थ- साध्य और साधन का एक साथ एक समय भी कारण है। आचार्य समन्तभद्र जी कृत आप्तमिमांसा | होने का नियम सहभाव नियम अविनाभाव है और काल ग्रन्थ श्लोक नं. ५८ को देखिए
के भेद से साध्य और साधन का क्रम से होने का नियम कार्योत्पादः क्षयोः हेतोर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् । | क्रमभावनियम अविनाभाव कहलाता है। न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत्॥
यहाँ पर सहभावनियम अविनाभाववाला हेतु है। __ अर्थ- एक हेतु का नियम होने से हेतु के क्षय | इसलिए यह कथन निर्दोष और न्यायसंगत है। अनेकान्त होने का नाम ही कार्य का उत्पाद है। उत्पाद और विनाश और स्याद्वाद को यदि हम भूलेंगे नहीं, तो सब आगम लक्षण की अपेक्षा पृथक-पृथक् हैं और जाति आदि के | को हम सहज समझ सकते हैं। आगे भी जहाँ जैसा अवस्थान के कारण उनमें कोई भेद नहीं है। परस्पर- हेत का कथन होगा, उसको न्यायग्रन्थ के अनुसार, विवक्षा निरपेक्ष उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आकाशपुष्प के समान | के अनुसार समझना। बस, अब आगे बढ़ते हैं। अवस्तु हैं।
१. सम्यमिथ्यात्व प्रकृति का उदय आता है तो, उत्पाद का कारण मानते हो, तो व्यय का कारण | तृतीय गुणस्थानवर्ती सम्यमिथ्यात्वी होगा। यदि मिथ्यात्व भी मानना पड़ेगा। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन का जघन्य और प्रकृति का उदय आता है तो, उसके उदय से प्रथम उकृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। काल पूर्ण होने के बाद यदि | गणस्थानवर्ति-मिथ्यादष्टि होगा। यदि प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होता है, तो क्षायोपशमिक का काल जघन्य से एक समय और उकृष्टता से छह सम्यग्दृष्टि बनेगा। यहाँ पर ही इस प्रवचनसार की गाथा | आवली शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क में से नं० १०० के रहस्य का उद्घाटन होता है। सो कैसा | किसी एक का उदय होने पर द्वितीय गुणस्थानवर्ती देखिए। सम्यक्त्वप्रकृति का उदय ही · क्षायोपशमिक | सासादन-सम्यग्दृष्टि बनेगा। अनन्तानुबन्धी कषाय का
12 जुलाई 2009 जिनभाषित