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एवं जीवों की विविधता बतलाता है तथा सत् अधिकार में यत्नविशेष भी नहीं किया है, इससे अजीव पदार्थों की द्रव्य संज्ञा नहीं बन पाती, इसलिए पृथक् पृथक् सूत्रप्रयोग ही व्याप्य है । इस प्रकार करने से 'च' शब्द भी सार्थक हो जाता है ।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः द्रव्यसंज्ञानुवर्तनार्थः । अर्थ- सूत्र ' में 'च' शब्द द्रव्य संज्ञा का अनुकर्षण करने के लिए है । ( अर्थात् जीव भी द्रव्य हैं ।) भावार्थ- सूत्र में 'च' शब्द से जीव भी द्रव्य है एवं अस्तिकाय रूप है इसका ग्रहण हो जाता है। निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥
संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दादनन्ताश्चेत्यनुकृष्यते । कस्यचित्पुद्गलद्रव्यस्य द्वयणुकादेः संख्येयाः प्रदेशाः कस्यचिदसंख्येया अनन्ताश्च ।
अर्थ- सूत्र में जो 'च' शब्द है, उससे अनन्त की अनुवृत्ति होती है। तात्पर्य यह है कि किसी द्वयणुक सर्वार्थसिद्धि एवं श्लोकवार्तिक में सूत्र में आये आदि पुद्गल द्रव्य के संख्यात प्रदेश होते हैं और किसी 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है। के असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश होते हैं ।
राजवार्तिक- 'च' शब्दोऽभिहितसंबन्धार्थः । ६ । 'च' शब्दः क्रियते अभिहितानामेकद्रव्याणां सम्बन्धार्थः । अतो धर्माऽधर्माकाशानां निष्क्रियत्वनियमाज्जीव- पुद्गलानां स्वतः परतश्च क्रियापरिणमित्वं सिद्धम् ।
अर्थ- 'च' शब्द अभिहित सम्बन्ध के लिए है । 'च' शब्द अभिहित धर्मादिक द्रव्यों के सम्बन्ध के लिए है अर्थात् 'च' शब्द से धर्म, अधर्म और आकाश निष्क्रिय हैं, ऐसा जानना चाहिये । धर्म, अधर्मादिक में निष्क्रियत्व का नियम होने से ही जीव और पुद्गलों के स्वपरप्रत्यय सक्रियता सिद्ध हो जाती है।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति निष्कान्तानि क्रियाया निष्क्रियाणीत्यन्यपदार्थवृत्याप्रकृतैकद्रव्याणां गतिश्चशब्दस्य प्रकृताभिसम्बन्धार्थत्वात् ।
अर्थ- क्रिया से जो निष्कान्त हैं, वे निष्क्रिय हैं, इसमें अन्य पदार्थप्रधानसमास (बहुव्रीहि समास) है, जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि प्रकृत में एक-एक कहे गये धर्मादि द्रव्य क्रियारहित हैं। 'च' शब्द इसी का सम्बन्ध करने के लिए है ।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः समुच्चये वर्तते । तेनायमर्थःधर्माधर्माकाशद्रव्याणि न केवलमेकद्रव्याणि अपि निष्क्रियाणि च स्वस्थानं परित्यज्य जीवपुद्गलवत् परक्षेत्रं न गच्छन्तीत्यर्थः ।
भावार्थ - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य एवं आगे कहा जानेवाला कालद्रव्य ये सभी निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित हैं अर्थात् पारिशेष न्याय से जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, यह सिद्ध हो जाता है। इसी के समुच्चयार्थ 'च' पद दिया है।
अर्थ- चकार शब्द समुच्च के लिए है, जिससे यह अर्थ होता है कि धर्म, अधर्म, एवं आकाश द्रव्य 1. केवल एक-एक ही नहीं, निष्क्रिय भी हैं, अर्थात् स्वस्थान " को छोड़कर जीव और पुद्गल की तरह अन्य क्षेत्रों में नहीं जाते हैं। इसका यह अर्थ हुआ ।
राजवार्तिक- 'च' शब्दोऽनन्तसमुच्चयार्थः । १ । अनन्ताः प्रकृतास्तेषां समुच्चयार्थश्चशब्दः क्रियते - संख्येया असंख्येया अनन्ताश्चेति, के । पुनस्ते ? प्रदेशाः इत्यनुवर्तते ।
अर्थ- 'च' शब्द अनन्त प्रदेश के समुच्चय के लिए है । अनन्त का प्रकरण है। उनका ग्रहण करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द को ग्रहण किया गया है। पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं। शंका- क्या होते हैं? समाधान- प्रदेश होते हैं, इसका अनुवर्तन होता
है।
श्लोकवार्तिक- प्रदेशा इत्यनुवर्तते । 'च' शब्दादनन्ताश्च समुच्चीयन्ते ।
अर्थ- प्रदेश का अनुवर्तन होता है। सूत्र में आये 'च' शब्द से अनन्त का समुच्चय हो जाता है।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दः प्रकृतानन्तसामान्यसमुच्चयार्थस्तेन परीतानन्तं युक्तानन्तमनन्तानन्तमिति त्रिविधमप्यनन्तमनन्तसामान्येऽन्तर्भूतं गृह्यते।
अर्थ- 'च' शब्द प्रकृत के अनन्तसामान्य का समुच्चय करने के लिए दिया है। उससे परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त ऐसे तीन प्रकार के अनन्त को अनन्तसामान्य में अन्तर्भूत करके ग्रहण किया है।
तत्त्वार्थवृत्ति- पुद्गलानां प्रदेशाः संख्ये या असंख्येयाश्च भवन्ति । चकारात् परीतानन्ताः युक्तानन्ता अनन्तानन्ताश्च त्रिविधानन्ताश्च भविन्त ।
अर्थ- पुद्गलों के प्रदेश संख्यात और असंख्यात होते हैं। सूत्र में आये 'च' शब्द से परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त ये ३ प्रकार से अनन्त प्रदेश भी होते हैं ।
जुलाई 2009 जिनभाषित 19