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माँ के दूध पर पलनेवाला बालक अधिक स्वस्थ और बलवान बनता है, उसी तरह मातृभाषा पढ़ने से मन और मस्तिष्क अधिक दृढ़ बनते हैं। आज यदि विश्व के विकासशील देशों पर दृष्टि डालें, तो हम पाते हैं कि अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, जर्मन, चीन, जापान, फ्रांस आदि देश विज्ञान, चिकित्सा, उद्योग, गणित, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, कला आदि क्षेत्रों में समृद्ध हैं, तो इसका महत्त्वपूर्ण कारण है कि ये सब देश अपनी मातृभाषा में चिंतन-मनन तो करते ही हैं, अध्ययन और अध्यापन का कार्य भी मातृभाषा में होता है। इनकी अभूतपूर्व प्रगति में मातृभाषा का बहुत बड़ा योगदान है।
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हमारे देश में आज शिक्षाव्यवस्था पूरी तरह से अँग्रेजी भाषा की चपेट में है । क्यों? हम अँग्रेजी भाषा को विश्वभाषा का दर्जा दे रहे हैं। क्यों? जिसकी भी थोड़ी सी आर्थिक स्थिति ठीक है, वह भी पेट काटकर बच्चों को पब्लिक स्कूल में भेज रहे हैं। क्यों? आज तरक्की नौकरी का पर्याय अंग्रेजी बन गयी है क्यों? इन सब प्रश्नों पर हमें विचार करना होगा।
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भारत ही एकमात्र देश है, जहाँ विदेशी भाषा के प्रति इतना मोह है। जितने अँग्रेजी अखबार भारत में छपते हैं, उतने किसी भी पूर्व गुलाम देश में नहीं छपते । आज अनेक विद्यार्थी अँग्रेजी विषय के दबाव में हैं। वे अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण मानसिक तनाव से गुजरते हैं, तथा अनेक बार आत्महत्या तक कर लेते हैं। आये दिन ऐसी घटनाओं से हम सब रूबरू होते रहते हैं। अनेक विद्यार्थी अपने जीवन को, अपने अभिभावकों को कोसते रहते हैं कि काश मेरी भी अँग्रेजी अच्छी होती, मैं भी कान्वेंट / पब्लिक स्कूल में पढ़ा होता, तो जीवन सफल हो जाता' आदि। अँग्रेजी के पक्षधर सदैव तर्क देते हैं कि आज विश्व के संपर्क की भाषा अँग्रेजी है विदेशी कम्पनियों में नौकरी ज्ञान-विज्ञान में शोध- अध्ययन, विदेशी व्यापार एवं तरक्की के लिये अँग्रेजी भाषा ही माध्यम है। पर देखा जाये, तो इन सबसे कितने लोग जुड़े हैं? बस इतने के लिये हम करोडों लोगों पर अँग्रेजी थोप दें? अँग्रेजी भाषा का ज्ञान एक विषय के रूप में, तो अवश्य होना चाहिये और जहाँ आवश्यक है वहाँ भी भाषा का ज्ञान हो, पर जिस तरह से हमारी शिक्षा व्यवस्था अँग्रेजी के अधकचरे ज्ञान पर चल रही
है, उसने सभी क्षेत्रों में अक्षमता ही बढ़ाई है और हमारी एक पीढ़ी अपनी परम्परा एवं संस्कृति से दूर होती जा रही है ।
'आधुनिक युग की प्रगति में अँग्रेजी भाषा ही एक मात्र माध्यम है, ऐसी लोगों की सोच होती जा रही है। पर यदि दृष्टि डालें तो रूस, जापान, चीन, फ्रांस, जर्मनी की तरक्की में कहीं भी विदेशी भाषा का योगदान नहीं है। यहाँ तक कि इनके प्रतिनिधि बाहर किसी भी देश में जाते हैं, तो अपनी भाषा में ही बोलते हैं, तब लगता है कि भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ की अपनी कोई भाषा नहीं है। अँग्रेजी भाषा को विदेशी व्यापार के लिये आवश्यक माननेवालों को जानकर आश्चर्य होगा कि आज हमारा चीन के साथ सबसे अधिक व्यापार लगभग तीन सौ अरब डालर का है, पर हमारे पाँच सात हजार लोग भी चीनी भाषा नहीं जानते हैं किसी भी देश का राष्ट्रीय स्वाभिमान उसकी भाषा-संस्कृति है हो सकता है कि अँग्रेजी बोलकर सारा देश अपने भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त कर ले, पर यदि हमने यह सब अपनी सांस्कृतिक विरासत खोकर पाया, तो क्या पाया ? गाँधी जी की ये पंक्तियाँ यहाँ स्मरण आ रही हैं, जो उन्होंने बी.बी.सी. को एक संदेश में कहीं थीं । 'दुनिया को बता दो, गाँधी अंग्रेजी नहीं जानता।' अँग्रेज जब भारत आये थे, तो उन्होंने सबसे पहले यहाँ की भाषा ही सीखी थी। भारत के दर्शन एवं धर्म को जानने के लिये अनेक विदेशियों ने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा को सीखा।
यूनेस्को की चेतावनी को यदि हमने गंभीरता से नहीं लिया, तो आगे आनेवाली पीढ़ी अपनी मातृभाषा से वंचित हो जायेगी, उसे न तो अपनी मातृभाषा पढ़ना आयेगा, न बोलना। सोचने व सृजन का, तो प्रश्न ही नहीं उठता। भारत सहित अनेक देश अपनी सांस्कृतिक बहुलता और भाषाई विविधता की विरासत को खो देंगे। अनेक साहित्यसम्पन्न संस्कृतियाँ म्यूजियम या लायब्रेरियों तक सिमट जायेंगी। आवश्यकता है हम अपनी मातृभाषा पर बल दें। हमारी सांस्कृतिक धरोहर ही हमारी पहचान है। आइये इसे अगली पीढ़ी तक पहुँचायें ।
'सर्वोदय' जैन मण्डी, खतौली - २५१२०१, उ.प्र.
जुलाई 2009 जिनभाषित 23