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रात्रि भोजन त्याग
स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया ऐसा कौन प्राणी है, जो भोजन बिना जीवित रह । त्याग हो जाता है। यदि ऐसा न माना जावे, तो रात्रि सके। जब तक शरीर है, उसकी स्थिति के लिए भोजन | भोजन त्याग को मूलगुणों में क्यों कथन किया गया बल्कि भी साथ है। और तो क्या वीतरागी निःस्पृही साधुओं | वसुनन्दि श्रावकाचार में, तो यहाँ तक कहा है कि- रात्रि को भी शरीर कायम रखने के लिए भोजन की आवश्यकता | भोजन करनेवाला ग्यारह प्रतिमाओं में से पहिली प्रतिमा पड़ती ही है, तो भी जिस प्रकार विवेकवानों के अन्य | का धारी भी नहीं हो सकता। यथाकार्य विचार के साथ सम्पादन किये जाते हैं, उस तरह | एयादसेसु पढगं विजदो णिसिभोयणं कुणं तस्स। भोजन में भी योग्यायोग्य का ख्याल रक्खा जाता है। कौन ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभत्तं परिहरे णियमा।। ३१४॥ भोजन शुद्ध है, कौन अशुद्ध है, किस समय खाना, किस
बसुनन्दि श्रावकाचार समय नहीं खाना आदि विचार ज्ञानवानों के अतिरिक्त छपी हरिवंश पुराण हिन्दी टीका के पृष्ठ ५२९ अन्य मूढ जन के क्या हो सकते हैं। कहा है- "ज्ञानेन | में कहा है किहीनाः पशुभिः समानाः" वास्तव में जो मनुष्य खाने- | । 'मद्य, मांस, मधु, झुंआ, वेश्या, परस्त्री, रात्रि भोजन, पीने मौज उड़ाने में ही अपने जीवन की इतिश्री समझे | कन्दमूल इनका, तो सर्वथा ही त्याग करना चाहिए। ये हुए हैं, उन्हें तो उपदेश ही क्या दिया जा सकता है, भोगोपभोग परिमाण में नहीं है।' मतलब कि हर एक किन्तु नरभव को पाकर जो हेयोपादेय का ख्याल रखते | श्रावक को चाहे वह किसी श्रेणी का हो रात्रि भोजन
अपनी आत्मा को इस लोक से भी बढकर परजन्म | का त्याग अत्यन्त आवश्यक है। यहाँ भोजन से मतलब में सुख पहुँचाने की जिनकी पवित्र भावना है उनके लिए | लड्डू आदि खाद्य, इलायची, तांबूल आदि स्वाद्य, रबड़ी ही सब प्रकार का आदेश उपदेश दिया जाता है। तथा आदि लेह्य, पानी आदि पेय इन चारों प्रकार के आहारों ऐसों ही के लिए आगमों की रचना कार्यकारी है। से है। रात्रि के समय उक्त चार प्रकार के आहार के
आगम में श्रावकों के आठ मूलगुण कहे हैं, जिनमें | त्याग को रात्रि भोजन त्याग कहते हैं। शास्त्रकारों ने तो रात्रि भोजन त्याग भी एक मूलगुण है जैसा कि निम्न | यहाँ तक जोर दिया है कि सूर्योदय और सूर्यास्त से श्लोक से प्रगट है
दो घड़ी पूर्व भोजन करना भी रात्रि भोजन में शुमार आप्तपंचनुतिर्जीवदया सलिलगालनम्। किया गया है। यथात्रिमद्यादि निशाहारोदुंबराणां च वर्जनम्॥
वासरस्य मुखे चांते विमुच्य घटिकाद्वयम्। धर्मसंग्रह श्रावकाचार योऽशनं सम्यगाधत्ते तस्यानस्तमितव्रतम्॥ इसमें देव वन्दना, जीवदया पालन, जल छानकर प्रथमानुयोग की कथनी पद्मपुराण में कथन हैपीना, मद्य, मांस, मधु का त्याग, रात्रि भोजन त्याग और | जिस समय लक्ष्मण जी जाने लगे, तो उनकी नव विवाहिता पंचोदंबर फल त्याग, ये आठ मूलगुण बताये हैं। जब | वधू वनमाला ने कहा कि- 'हे प्राणनाथ! मुझ अकेली रात्रि भोजन त्याग श्रावकों के उन कर्तव्यों में हैं, जिन्हें को छोड़ कर जो आप जाने का विचार करते हो, तो मूल (खास) गुण कहा गया है तब यदि कोई इसका | मुझ विरहिणी का क्या हाल होगा?' तब लक्ष्मण जी पालन नहीं करता, तो उसे श्रावककोटि में गिना जाता | क्या उत्तर देते हैं सुनियेक्यों कर उचित कहा जायेगा? यदि कोई कहे कि रात्रिभुक्ति स्ववधूं लक्ष्मणः प्राह मुंच मां वनमालिके। त्याग तो छठवीं प्रतिमा में है, इसका समाधान यह है कार्ये त्वां लातुमेष्यामि देवादिशपथोऽस्तु मे ॥२८॥ कि- छठवीं प्रतिमा को कई ग्रन्थकारों ने तो दिवामैथुन पुनरूचे तयेतीशः कथमप्यप्रतीतया। त्याग नाम से कही है। हाँ कुछ ने रात्रिभुक्ति त्याग नाम ब्रूहि चेन्नैमि लिप्येऽहं रात्रिभुक्तेरघैस्तदा॥ २९॥ से भी वर्णन की है, जिसका मतलब यही हो सकता
धर्मसंग्रह श्रावकाचार है कि इसके पहिले रात्रिभोजन त्याग में कुछ अतीचार
भावार्थ- हे वनमाले! मुझे जाने दो, अभीष्ट कार्य लगते थे, सो इस छठवीं प्रतिमा में पूर्ण रूप से निरतिचार | के हो जाने पर मैं तुम्हें लेने के लिए अवश्य आऊँगा। 14 जुलाई 2009 जिनभाषित