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मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अगर मैं अपने बचनों को पूरा | तदुद्योतवशादन्ये प्रागच्छन्तीव भाजने॥ ७९॥ न करूँ, तो जो दोष हिंसादि के करने से लगता है पाकभाजनमध्ये तु पतन्त्येवांगिनो ध्रुवम्। उसी दोष का मैं भागी होऊँ।
अन्नादिपचनादात्रौ म्रियन्तेऽनंतराशयः॥ ८०॥ सुनकर वनमाला लक्ष्मण जी से बोली- मुझे आपके
इत्येवं दोषसंयुक्तं त्याज्यं संभोजनं निशि। आने में फिर भी कुछ सन्देह है इसलिए आप यह प्रतिज्ञा
विषान्नमिव निःशेषं पापभीतैनरैः सदा॥ ८१॥ करें कि- 'यदि मैं न आऊँ तो रात्रिभोजन के पाप का
भक्षणीयं भवेन्नैव पत्रपूगीफलादिकम्। भोगनेवाला होऊँ।'
कीटाढ्यं सर्वथा दक्षै रिपापप्रदं निशि॥ ८४॥ देखा पाठक! रात्रि भोजन का पाप कितना भयंकर
न ग्राह्यं प्रोदकं धीरविभावाँ कदाचन। है। प्रीतंकर के पूर्व भव के स्याल के जीव ने मुनीश्वर
तृटशांतये स्वधर्माय सूक्ष्मजन्तुसमाकुलम्॥ ८५॥
चतुर्विधं सदाहारं ये त्यजन्ति बुधा निशि। के उपदेश से रात्रि में जल पीने का त्याग किया था,
तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासस्य जायते॥ ८६॥ जिसके प्रताप से वह महा पुन्यवान् समृद्धिशाली प्रीतंकर
अर्थ- रात्रि में भोजन करनेवालों की थालियों में हुआ था। वास्तव में बात सोलह आना ठीक है कि रात्रिभोजन अनेक दोषों का घर है। जो पुरुष रात्रि को
डाँस, मच्छर, पतंगे, आदि छोटे-छोटे जीव आ पड़ते भोजन करता है वह समस्त प्रकार की धर्म क्रिया से
हैं। यदि दीपक न जलाया जाय, तो स्थूल जीव भी हीन है, उसमें और पशु में सिवाय सींग के कोई भेद
दिखाई नहीं पड़ते और यदि दीपक जला लिया जाय,
तो उसके प्रकाश से और अनेक जीव आ जाते हैं। नहीं है। जिस रात्रि में सूक्ष्म कीट आदि का संचार रहता
भोजन पकते समय भी उस अन्न की वायु गंध चारों है मुनि लोग चलते-फिरते नहीं, भक्ष्याभक्ष्य का भेद मालूम
ओर फैलती है अतः उसके कारण उन पात्रों में जीव नहीं होता, आहार पर आये हुए बारीक जीव दीखते
आ आकर पड़ते हैं। पापों से डरनेवालों को ऊपर लिखित नहीं, ऐसी रात्रि में दयालु श्रावकों को कदापि भोजन नहीं करना चाहिये। जगह-जगह जैनग्रन्थों में स्पष्ट निषेध
अनेक दोषों से भरे हुए रात्रि भोजन को विष-मिले अन्न
के समान सदा के लिए अवश्य त्याग कर देना चाहिए। होते भी आज हमारे कई जैनी भाई रात्रि में खूब माल
चतुर पुरुषों को रात्रि में सुपारी, जावित्री, तांबल आदि उड़ाते हैं। कई प्रान्तों के जैनियों ने तो ऐसा नियम बना
भी नहीं खाने चाहिये क्योंकि इनमें अनेक कीड़ों की रक्खा है कि रात्रि में अन्न की चीज न खानी-शेष पेड़ा,
| सम्भावना है अतः इनका खाना भी पापोत्पादक है। धीरवीरों बरफी आदि खाने में कोई हर्ज ही नहीं समझते। न
को दया धर्म पालनार्थ प्यास लगने पर भी अनेक सूक्ष्म मालूम ऐसा नियम इन लोगों ने किस शास्त्र के आधार पर बनाया है। खेद है जिन कलाकन्द, बरफी आदि
जीवों से भरे जल को रात्रि में कदापि न पीना चाहिये। पदार्थों में मिठाई के प्रसंग से अधिक जीवघात होना
इस प्रकार रात्रि में चारों प्रकार के आहार को छोड़ने
वालों के प्रत्येक मास में पन्दह दिन उपवास करने का सम्भव है, उन्हें ही उदरस्थ करने की इन भोले आदमियों । ने प्रवृत्ति कर अपनी अज्ञानता और जिह्वा लंपटता का
फल प्राप्त होता है।
रात्रि भोजन के दोष के वर्णन में जैनधर्म के ग्रन्थों खूब परिचय दिया है। श्री सकलकीर्ति जी ने श्रावकाचार में साफ कहा है कि
के ग्रन्थ भरे पड़े हैं। यदि उन सबको हाँ उद्धृत किया
जावे, तो एक बहुत बड़ा ग्रन्थ हो सकता है। अतः हम भक्षितं येन रात्रौ च स्वाद्यं तेनान्नमंजसा।
भी इतने से ही विश्राम लेते हैं। यतोऽन्नस्वाद्ययोर्भेदो न स्याद्वान्नादियोगतः॥८३॥ अर्थ- जो रात्रि में अन्न के पदार्थों को छोड़कर
रात्रिभोजन खाली धार्मिक विषय ही नहीं है, किन्तु
यह शरीर शास्त्र से भी बहुत अधिक सम्बन्ध रखता पेड़ा, बरफी आदि खाद्य पदार्थों को खाते हैं, वे भी पापी हैं क्योंकि अन्न और स्वाद्य पदार्थों में कोई भेद
| है। प्रायः रात्रिभोजन से आरोग्यता की हानि होने की नहीं है। तथा और भी कहा है कि
भी काफी सम्भावना हो सकती है। जैसे कहा है किदंशकीटपतंगादि सक्ष्मजीवा अनेकधाः।
मक्षिका वमनाय स्यात्स्वरभंगाय मूर्द्धजः। स्थालमध्ये पतन्त्येव रात्रिभोजनसंगिनाम्॥ ७८॥
यूका जलोदरे विष्टिः कुष्टाय गृहकोकिली॥ २३॥ दीपकेन बिना स्थूला दृश्यन्ते नांगिनः क्वचित्।।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार (मेधावीकृत)
जुलाई 2009 जिनभाषित 15