Book Title: Jinabhashita 2009 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ ६. हर महीने अपने सिर के पाँच बाल हाथ से उखाड़ कर अग्नि में डालें । ७. हर महीने नारियल को अपने ऊपर नौ बार घुमाकर नदी या तालाब के किनारे छोड़ दें। ८. नागमोहनी लकड़ी को ११ बार णमोकारमंत्र पढ़कर अपने ऊपर घुमाकर वस्ती के बाहर छोड़ दें या गड्ढे में डाल दें। ९. गूगल को २१ बार णमोकारमंत्र पढ़कर अपने ऊपर घुमाकर अग्नि में छोड़ दें । १०. कालसर्पयोगनिवारण का मंत्र सर्पविष उतारनेवाले मंत्र के समान होता है। उसके द्वारा झड़वाना आवश्यक है। उस मंत्र को दो साल में सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार कालसर्पयोगनिवारण का अनुष्ठान करानेवाले जैन विधानाचार्यों ने कालसर्पयोगनिवारण में जिनभक्ति को पर्याप्त नहीं माना, उसके साथ उपर्युक्त अभिचारद्रव्यों से अभिचार ( टोना टोटका करना भी आवश्यक माना है । अर्थात् उन्होंने भक्तामरस्तोत्र आदि के उपर्युक्त वचनों को अविश्वसनीय ठहराने का प्रयत्न किया है, जिनमें कहा गया है कि जिनेन्द्र के स्तवन एवं नामस्मरण मात्र से बड़े से बड़े अशुभयोग टल जाते हैं। जिनेन्द्र के अतिरिक्त व्यन्तरादि से कृपा की प्रार्थना विधानाचार्यों को यह विश्वास नहीं है कि मात्र जिनेन्द्र की भक्ति से जातक के कालसर्पयोग का निवारण हो जायेगा, इसलिए उन्होंने वैमानिक भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों के सामने भी कालसर्पयोगनिवारण हेतु गिड़गिड़ाना जरूरी बतलाया है । 'कालसर्पनिवारण - शान्तिधारा' के ये मन्त्र इसके उदाहरण हैं “ॐ यमवरुणकुवेरवासवश्च वः प्रीयन्ताम् । ॐ असुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमारादिदशविध - भवन - वासिकाश्च वः प्रीयन्ताम् । ओं अनन्त - वासुकी तक्षक-कर्कोटक -पद्म- महापद्म- शंखपालकुलिक - जय-विजय नागाश्च ते कालसर्पनिवारणार्थं शान्तिधारां करोमि । ॐ इन्द्राग्नि यम नैऋति दशविधदिग्देवताश्च वः प्रीयन्ताम् । ॐ सुरासुरोरगेन्द्र --- गन्धर्वयक्ष - राक्षस- भूतपिशाचाश्च वः प्रीयन्ताम् । ॐ बुधशुक्र --- महाग्रहा ज्योतिष्कदेवताश्च वः प्रीयन्ताम् । --- विंशतिभवनेन्द्राश्च वः प्रीयन्ताम् । षोडशव्यन्तरेन्द्राश्च मम कालसर्प- निवारयन्तु । चतुर्विंशतियक्षेन्द्राश्च मम कालसर्पं निवारयन्तु । --- चतुर्विंशति यक्षीदेवताश्च मम कालसर्पं निवारयन्तु । --- ॐ सौधर्मेशान - सानत्कुमार- माहेन्द्र --- षोडशकल्पवासिकाश्च वः प्रीयन्ताम् ।--- नवग्रैवेयकवैमानिकाश्च वः प्रीयन्ताम् ।" इन मंत्रों में चारों निकायों के देव-देवियों से जातक पर प्रसन्न होने (प्रीयन्ताम्, प्री- प्रसन्न होना ) और उसके कालसर्पयोगनिवारण की प्रार्थना की गई है। यह इस बात का प्रमाण है कि जैन विधानाचार्यों को यह विश्वास नहीं है कि एकमात्र जिनभक्ति से कालसर्पयोगनिवारण हो सकता है। इस कार्य में उन्होंने जिनेन्द्रदेव एवं चतुर्णिकाय के देवों को एक ही आसन पर लाकर बैठा दिया है। यह जिनेन्द्रदेव के परमेष्ठिपद के अवमूल्यन और देवमूढ़ता का हृदयदाहक उदाहरण है। अभिचारशास्त्र ( तन्त्रशास्त्र ) परसमय ( अजैनशास्त्र, बाह्यशास्त्र ) है --- कालसर्पयोग या अन्य अशुभयोगनिवारण के लिए काले उड़द, काले या पील सरसों, लाल मिर्च, रक्षासूत्र आदि पूर्वोक्त अभिचारद्रव्य ( टोना-टोटका करने की सामग्री ) के द्वारा किया जानेवाला अभिचार ( टोना-टोटका ) या तान्त्रिक अनुष्ठान परसमय (अजैन शास्त्र) की क्रिया है, स्वसमय (जैनशास्त्र) की नहीं । इसका स्पष्टीकरण आचार्य वीरसेन ने धवलाटीका ( षट्खण्डागम / पुस्तक १ / १, १, १ / पृ. ८३) एवं जयधवला टीका (कसा पाहुड / भाग १ / गाथा १ / पृ. ८८-८९) में किया है। कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्रटीका (गाथा ४६४), भगवती - आराधना की विजयोदयाटीका ( गाथा ६१३ / पृ. ४२१), बृहद्रव्यसंग्रह की ब्रह्मदेवटीका (गा. ४१ / अमूढदृष्टि अंग / पृ. १५६), प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति / अधिकार ३ / गा. ६९ तथा जयोदय महाकाव्य (सर्ग २ / श्लोक ६३) में भी उपर्युक्त क्रियाओं का वर्णन करनेवाले शास्त्र को मिथ्यादृष्टिप्रणीत मिथ्याशास्त्र, 4 जुलाई 2009 जिनभाषित

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