Book Title: Jinabhashita 2009 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ जी का हाथ है। मैं (आर्यिका स्याद्वाद-मति जी) पाठकों को सूचित कर देना चाहती हूँ कि आचार्यश्री के चरणों में मैंने पूरे १५ वर्ष बिताये, उसके पश्चात् १० वर्ष और, कुल २५ वर्षों में मैने आचार्यश्री के संघ में कभी नवरात्रि महोत्सव या गरबा नृत्य या देवी-आराधना को नहीं देखा। उन्हें एकमात्र णमोकारमंत्र का जाप प्रिय था। इसी की आराधना में आचार्यश्री सतत लीन रहते थे। ऐसे महापुरुष का बिना देखेसुने अवर्णवाद करना अनुचित है, चिंतन करें। कुछ लोग अनेक प्रकार के अवर्णवाद करके आचार्यश्री को दूषित ठहराते हैं, पर आँखों से देखी व कानों से सुनी बातों में जमीन आसमान का अंतर होता है। वे कभी मिथ्यात्व में डूबने की बात नहीं कहते थे। एक दिन एक महिला आचार्यश्री के पास पहुँची, कहने लगी- महाराज जी! मैं शुक्रवार का व्रत करूँ क्या? आचार्यश्री ने कहा- बेटा! पार्श्वनाथ जी का रविवार करो। रविवार को नमक मत खाओ, सब कष्ट मिट जायेंगे। यह घटना मेरी आँखों देखी प्रत्यक्ष है। एक दिन एक महिला ने आचार्यश्री से कहा- 'आचार्यश्री! मैं पद्मावती देवी का सहस्रनाम पाठ करूँ, आशीर्वाद दीजिए।' आचार्यश्री ने कहा- 'पागल हो गई हो क्या? अरहंत भगवान् का जिनसहस्रनामस्तोत्र पढो, सर्वशान्ति प्राप्त होगी। राजा को मनाओ, राजा की स्तुति करो, उनके यक्ष-यक्षी देवता तो यू ही आगे पीछे घूमेंगे।' उपर्युक्त प्रसंग से स्पष्ट है कि आचार्य महावीरकीर्ति जी के शिष्य आचार्य विमलसागर जी महाराज नवरात्रि पर्व को मनाना मिथ्यात्व समझते थे और निषेध करते थे। नवरात्रि पर्व वास्तव में वैदिक परम्परा को माननेवालों का महान् पर्व है। वे इन दिनों विभिन्न देवियों की आराधना एवं पूजा आदि करते हैं। दिगम्बर जैन धर्मानुयायियों का नवरात्रि पर्व या विजयादशमी से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः हम सबको किसी भी साधु, आचार्य, विद्वान या विधानाचार्य के कहने में आकर नवरात्रि या विजयादशमी नहीं मनाना चाहिये और न ही इन दिनों को कोई महत्त्व प्रदान करना चाहिये। डॉ० शीतलचन्द्र जैन राँची में में जिनबिम्ब-स्थापना समारोह संपन्न राँची १३ दिसम्बर ०८। संत शिरोमणि प.पू. आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से उनके परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के पावन सान्निध्य में यहाँ देवाधिदेव १००८ वासुपूज्य भगवान् की विशाल जिनप्रतिमा, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पूर्वक रतनलाल जैन चैरिटेबुल ट्रस्ट के सौजन्य से नागर शैली में लाल पाषाणयुक्त नवनिर्मित जिनालय में अपूर्व धर्मप्रभावना के साथ विराजमान की गयी। नवीन जिनालय के शिखर पर कलशारोहण एवं ध्वजारोहण का अनुष्ठान भी संपन्न हुआ। प्रतिष्ठाकार्य श्री प्रदीप भैया ‘सुयश' अशोकनगर (म.प्र.) के कुशल निर्देशन में सम्पन्न हुआ। पू० मुनि श्री प्रमाणसागर जी महाराज ने पंच-कल्याणक-प्रतिष्ठा-समापन समारोह में श्रोताओं को सम्बोधित करते हए अपने आशिर्वचन में कहा कि आयोजन की सफलता पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी के आशीर्वाद का प्रतिफल है। मुनिश्री ने कहा कि नवीन जिनायतनों का निर्माण एवं प्राचीन जिनायतनों के जीर्णोद्धार से ही हमारी संस्कृति आज तक सुरक्षित है और आगे भी सुरक्षित रहेगी। विमल कुमार सेठी, गया 6 फरवरी 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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