Book Title: Jinabhashita 2009 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ हे माँ! तुम्हें प्रणाम डॉ० सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' ऐसा प्रसंग आता है कि जब श्रीराम-रावण युद्ध । सबने नहीं की थी। कौन जानता था कि प्रत्येक अष्टमी में रावण मारा गया और श्रीराम को सीता मिल गयीं, | की तरह शनिवार, दिनांक ६ दिसम्बर, २००८, अगहन तो विभीषण ने श्रीराम से आग्रह किया कि वे कुछ | शुक्ल की अष्टमी (वि.सं. २०६५) उनके जीवन की दिन लंका में विश्राम करें, तब श्रीराम ने कहा कि हे | अंतिम अष्टमी बन जायेगी। प्रातः ही उन्होंने श्री दि. लक्ष्मण! यह स्वर्णनगरी मुझे रुचिकर नहीं लगती, क्योंकि | जैन नये मन्दिर जी (मड़ावरा) में जिनाभिषेक देखा, जननी (माता) और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् होती | पूजन की और भक्तिभाव से सभी दस जैन मन्दिरों की वंदना की। प्रातः ११ बजे प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी नेयं स्वर्णपुरी लंका, रोचते मम लक्ष्मण।। को उनका एकाशन का नियम था, जो अन्ततः उपवास जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥ में बदल गया। अष्टमी के ही दिन उच्च रक्तचाप के श्रीराम के इस कथन से माता की गरिमा का | कारण उन्हें 'ब्रेन हेमरेज' हो गया था। सहज ही निर्णय हो जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इसीलिए उनका जीवनभर का निष्कपट व्यवहार, पर 'मातृदेवो भव' कहा गया है। कहते हैं कि "नास्ति मातृसमो दुःखकारता का भाव, परोपकार, निर्लोभिता और धर्म के गुरुः" अर्थात् माता के समान कोई गुरु नहीं है। 'चाउसर' प्रति आस्था बताती है कि उन्हें अवश्य सद्गति मिली ने तो लिखा है होगी। हम सब उन्हें अपने हार्दिक श्रद्धासुमन अर्पित बुद्धिमत्ता से अच्छा क्या है? नारी। करते हुए उनके प्रति नतमस्तक हैं। अच्छी नारी से अच्छा क्या? कुछ नहीं। प्रतिष्ठित सोरया परिवार की चार पीढियों को उन्होंने - इस तरह नारी के मातृस्वरूप का हम सब पुस्तकों | अपने आदर, सम्मान, स्नेह और वात्सल्य पूरित किया। में वर्णन पढ़ते थे और उसका मूर्तिमान् रूप अपनी पूज्या | उनके हाथों में बरकत थी। यदि वे किसी घाव आदि माँ (श्रीमती अशर्फी देवी) में प्रत्यक्ष देखा करते थे। पर अपने हाथों से मलहम लगा देती थीं, तो वह घाव आज बड़े भारी मन से, काँपते हाथों से लिखना पड़ | तुरन्त भर जाता था। यदि सिर पर हाथ फेर दें, तो सिरदर्द रहा है कि अब वह माँ हमारे बची नहीं रही। दिनांक | का पता नहीं चलता था। घर में कोई भी अतिथि आ १० दिसम्बर, २००८ बुधवार को दोपहर १ बजे महारानी | जाये, चाहे वह सगा हो या दूर का, अपना हो या पराया, लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज झाँसी के न्यूरोसर्जन विभाग | वे उसकी सुख-सुविधा एवं आतिथ्य का पूरा ध्यान रखती के आई. सी. यू. शय्या क्र. १ पर उन्होंने णमोकारमंत्र | थीं। वे अपनी कार्यक्षमता एवं कार्यनिपुणता के कारण श्रवण करते हुए अपने प्राणों का विसर्जन किया। अग्रज | समवयस्क महिलाओं से सदा प्रशंसा पाती रहीं। वे किसी डॉ० रमेशचन्द्र जी, डॉ० अशोक कुमार जी, भाभी-श्रीमती | की बाई (माँ) थीं, किसी की जिज्जी (दीदी), सब क्रान्ति जैन और मैं उस समय वहीं थे और देहत्याग | उन्हें आदर देते। उनमें कभी भी हमने हीनता का भाव की यात्रा को साक्षात् देख रहे थे। माँ के दीप्त मुखमण्डल | नहीं देखा। गजब का स्वाभिमान उनमें था। अनेक तीर्थक्षेत्रों पर असीमित शान्त परिणाम साफ झलक रहे थे। हम | की उन्होंने वंदना की, अनेक साधुओं के दर्शन किए, सब साधनसम्पन्न होने पर भी आयुकर्म की व्यवस्था आहारदान दिया। उनके सन्दूक में जो भी धनसंचित होता, के आगे नतशिर थे। आँखों में आँसू थे और मन ही | उसमें से वे प्रतिवर्ष कुछ न कुछ दान किया करती मन बरबस 'बारह भावना' की ये पंक्तियाँ याद आ रही | थीं। वे परिवार में अन्नपूर्णा थीं और सबके लिए आदर्श। थीं आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो लगता है कि यदि राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार। मैं ईश्वरवादी होता, तो किसी शायर के ये शब्द अवश्य मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार॥ | दोहराता कि __ हमारी माँ, सबसे अच्छी माँ! अपनी जीवनयात्रा ऐ अजल! तुझसे ये कैसी नादानी हई। इतनी जल्दी पूर्ण कर लेंगी, इसकी कल्पना भी हम फूल वो तोड़ा कि चमन में वीरानी हुई। -फरवरी 2009 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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