Book Title: Jinabhashita 2009 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 32
________________ संपाद्य ....॥ जिज्ञासा- बिना दान में दी हुई या बिना खरीदी अर्थ- मस्तक, दाढ़ी मूंछ के केशों का लोच | हई भमि पर नवीन मंदिर बनवाना उचित है या नहीं? हाथों की अंगुलियों से करते हैं। दाहिने बाजू से आरंभ | | समाधान- किसी अनधिकृत भूमि पर नवीन कर बायें तरफ आवर्तरूप करते हैं। जिनमंदिर बनवाना उचित नहीं है, इसे भी 'अदत्तादानं श्री अनगारधर्मामृत अध्याय ९/८६ में भी इसी प्रकार | स्तेयं' के अंतर्गत चोरी ही माना जायेगा। परंत आजकल कहा है सभी धर्म के लोग अपने-अपने मंदिरों के लिए बिना उपर्युक्त सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि केशलोच | खरीदी हुई सरकारी भूमि के किसी भाग को अधिग्रहण में, मस्तक, दाढ़ी एवं मूंछ के बालों का ही लोच किया करके मंदिर बनाते हुये देखे जाते हैं। वे रातों रात उस जाता है अन्य का नहीं। भूमि पर नाजायज अधिकार करके, एक रात में ही मंदिर जिज्ञासा- बारहवें गुणस्थान में मुनिराज के खड़ा कर लेते हैं। ऐसा करना आजकल बहुत सामान्य शरीरस्थ अनंत बादर निगोदिया मरण को प्राप्त हो जाते हो गया है अथवा लोकरीति बन गई है। अतः यदि हैं, तो मुनिराज को हिंसा का दोष लगता है या नहीं? किसी स्थान पर उचित भूमि न मिलने के कारण वहाँ समाधान- श्री धवला पु.१४ पृ.८५, ९१, १३८, की जैनसमाज भी किसी रिक्त पड़ी भूमि का अधिग्रहण तथा ४९१ से इस संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त होती करके जिनमंदिर निर्माण करती है, तो उसे चोरी न मानकर है, जिसका सारांश इस प्रकार है- क्षीणकषाय हुए जीव के प्रथम समय में अनंत बादरनिगोद मर जाते हैं। दूसरे कदाचित् लोकरीति कहा जा सकता है। परंतु शास्त्रानुसार समय में विशेष अधिक जीव मरते हैं, इसी प्रकार आगे- | इसे उचित नहीं कहा जायेगा। आगे के समयों में विशेष अधिकपना जानना चाहिए। जिज्ञासा- आजकल कुछ वृद्ध महिलाएँ एवं पुरुष अंत समय पर्यंत वे आगमानसार मरण को प्राप्त होते किसी दिन या वार के हिसाब से क्रमपूर्वक रसों को रहते हैं। क्षीणकषाय के प्रथम समय से लेकर बादर त्याग कर भोजन करते हुये देखे जाते हैं, क्या इस विधि निगोद जीव तब तक उत्पन्न होते हैं, जब तक कि | का चरणानुयोग के शास्त्रों में उल्लेख मिलता है? क्षीणकषाय के काल में उनका जघन्य आयु का काल समाधान- सागारधर्मामृत, पद्मकृत श्रावकाचार, शेष रहता है। इसके बाद उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि | तथा दौलतरामकृत क्रियाकोष में दूध-दही, मीठा-नमक बाद में उत्पन्न होने पर उनके जीवित रहने का काल तथा घी-तेल को रस के रूप में कहा गया है, परंतु नहीं रहता, अतः बादर निगोद जीव यहाँ से लेकर | ऐसा वर्णन किसी भी शास्त्र में नहीं है कि इस दिन क्षीणकषाय के अंत समय तक केवल मरते ही हैं। यह रस छोड़कर भोजन करना चाहिए। यद्यपि इस प्रकार क्षीणकषाय के योग्य बादर वर्गणाओं का हमेशा ही । (जैसे रविवार को नमक नहीं खाना आदि) भोजन करना अवस्थान नहीं पाया जाता। यदि उनका अवस्थान होता | इन्द्रियों को वश में करने के लिए उचित है, परंतु इस है तो किसी भी जीव को मोक्ष नहीं हो सकता है, क्योंकि | प्रकार का उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। ऐसा प्रतीत क्षीणकषाय में विरोध है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि | होता है कि यदि व्रती लोग अलग-अलग दिन भिन्नये निगोद जीव यहाँ मरण को क्यों प्राप्त होते हैं? इसका | भिन्न रसों का त्याग करेंगे तो कहीं सामूहिक भोजन समाधान यह है कि एकत्ववितर्क शुक्लध्यान से निगोद | के स्थान पर बड़ी असुविधा रहेगी अर्थात उस दिन कोई जीवों की उत्पत्ति और उनकी स्थिति के कारण का निषेध नमक नहीं खायेगा और कोई घी आदि। अतः सुविधा हो जाता है। यदि कोई प्रश्न करे कि ध्यान से अनंतानंत | के लिए रविवार को नमक नहीं खाना आदि व्यवस्था जीवराशि का हनन करनेवाले को (इतनी हिंसा करने की एकरूपता, समाज ने अपनी सुविधा के लिए स्वयं वाले को) मोक्ष कैसे मिल सकता है? उसका समाधान बना ली हो। यदि ऐसा भी है, तो भी इसे अनुचित यह है कि प्रमाद के न होने से उनको मात्र बहिरंग नहीं कहा जा सकता। हिंसा से आस्रव नहीं होता। (पं0 जवाहरलाल जी शास्त्री १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी, भींडर द्वारा रचित वृहज्जिनोपदेश से साभार)। आगरा (उ.प्र.) 30 फरवरी 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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