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दिग्विजय
मूलचन्द लुहाड़िया कुछ समय से समाज के एक उदीयमान आगम- | निश्चय ही पद्मावतीदेवी एवं अन्य शासनदेवता पाठी योग्य विद्वान् श्री हेमंत काला के द्वारा दिग्विजय | आदि रागद्वेष से मलिन हैं, अत: सच्चे देव नहीं हैं, नामक पत्रिका प्रकाशित कर सर्वत्र वितरित की जा रही | अर्थात् कुदेव हैं। अत: उनकी पूजा, आराधना, प्रणाम है। उसमें ऐसे विषयों पर विपरीत लिखा जा रहा है | आदि नहीं करना चाहिए, ऐसा स्पष्ट विधान आचार्य जो दिगम्बर जैनधर्म के प्राणवत् हैं। पत्रिका के एक | समंतभद्रदेव ने किया है। हमारे विद्वान् श्री काला जी विशेषांक में शासन देवी-देवताओं की पूजा आराधना का ने अपनी विद्वत्शक्ति का पूरा उपयोग इस आगमसम्मत समर्थन किया है। विशेष आश्चर्य एवं खेद तब होता | मूलसिद्धान्त के विपरीत शासनदेवताओं की उपासना के है, जब वे आगम के आधार पर अपने मत को पुष्ट | प्रचार में किया है। करने का असफल प्रयास करते है। प्रथम श्रावकाचार | . यह कहा जाता है कि शासन देवता सच्चे देव ग्रंथ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में महान् तार्किक आचार्य | तो नहीं हैं, किंतु सच्चे देव के सेवक हैं, अतः उनका समंतभद्रदेव ने श्रावकों के लिए परमार्थभूत सच्चे देव- सम्मान किया जाना चाहिए, अनादर नहीं किया जाना शास्त्रगुरु के श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन अथवा धर्म कहा | चाहिए। हम तो शासनदेवताओं का ही नहीं, जिनेन्द्रदेव है। साथ ही उन तीनों के लक्षण भी कहे हैं। सच्चे | के सभी उपासकों का यथायोग्य सम्मान किए जाने के देव का लक्षण उन्होंने कहा है कि जो सर्वज्ञ, वीतराग | समर्थक हैं। अनादर तो अभक्तों का भी नहीं करते हैं। एवं हितोपदेशी हो, वही सच्चा देव (आप्त) है। आगे | किन्तु उन जिनेन्द्र भगवान् के सेवकों/ उपासकों की मूर्ति सच्चे देव के स्वरूप पर पूरा जोर देते हुए कहा है | बनाकर, वेदी पर स्थापित कर पूजा आराधना के तो कि निश्चितरूप से इन लक्षणोंवाला ही देव हो सकता | वे पात्र नहीं है। ये शासन देवता, यदि सम्यग्दृष्टि हैं, है, अन्यथा इन लक्षणों से रहित सच्चा देवपना कभी | तो अपनी असंयमदशा के कारण किसी से भी अपनी नहीं हो सकता है। सर्वज्ञता, वीतरागता एवं हितोपदेशिता | पूजा-आराधना कभी नहीं चाहेंगे और जिनेन्द्र के उपासक जिनमें पाई जाती है, वे सच्चे देव हैं और जिनमें नहीं | धार्मिक जनों की वात्सल्यभाव से कर्त्तव्य समझते हुए पाई जाती है, वे सच्चे देव नहीं है अर्थात् वे कुदेव | संभव सहायता करेंगे। बल्कि उन सम्यग्दृष्टि देवों को हैं। आचार्य समंतभद्र, कुंदकुंद, अकलंक, अमृतचंद आदि | अपनी पूजा करनेवाले अविवेकी श्रावकों की बुद्धि पर सभी प्राचीन आचार्यों का यह स्पष्ट उद्घोष है। सम्यग्दर्शन | तरस अवश्य आता होगा। जिनेन्द्र भगवान् की मूर्ति में के प्रसंग में आचार्य देव ने सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के | दोनों पार्श्व भागों में सेवक के रूप में यक्षादि देवताओं श्रद्धान की बात को अनेक स्थलों पर दोहराया है। की मूर्तियाँ तो अवश्य पाई जाती हैं, किंतु स्वतंत्र रूप मिथ्यादर्शन के निमित्तभूत मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु की | से देवियों या यक्षादि देवताओं की मूर्तियाँ तो भट्टारकीय आराधना को तीन मूढ़ता बताया और उनकी मान्यता | युग में बनाना प्रारंभ हुआ था। भट्टारकों ने अपनी ख्याति, का निषेध किया। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में अमूढदृष्टित्व | पूजा एवं परिग्रहसंचय की लालसा की पूर्ति के उद्देश्य का लक्षण बताते हुए कहा है कि किसी लौकिक वैभव से जैनियों को शास्त्रों का अध्ययन नहीं करने दिया और की प्राप्ति के लिए रागद्वेष से मलिन देवताओं की उपासना | मंत्रतंत्रादि से सिद्धि होने के लालच में फँसाकर उनको करना देवमूढ़ता है। यह भी लिखा है कि सम्यग्दृष्टि, | सच्चे वीतरागी देव के स्वरूप एवं तत्त्वज्ञान से अपरिचित कुदेव, कुगुरु व कुशास्त्र को किसी भय, लालच या बनाए रखा। भट्टारकों ने धरणेन्द्र, पद्मावती एवं शासनस्नेह के कारण प्रणाम नहीं करता और न ही उनकी | देवताओं की अलग मूर्तियाँ बनाने का प्रचलन प्रारंभ कर विनय करता है। इसके विपरीत सच्चे देव, शास्त्र, गुरु दिया, जो अतिशीघ्र देश में सर्वत्र फैल गया। जिनेन्द्र के श्रद्धान का विधान धर्म के आयतनों के रूप में किया | भगवान् के पास वेदी में उन देवी-देवताओं की मूर्तियों गया है और उसे सम्यग्दर्शन का कारण अथवा सम्यग्दर्शन को स्थापित करना सर्वथा अनुचित, अनुपयुक्त एवं मिथ्यात्व की कहा है।
| पोषक क्रिया है। उन भवनत्रिक के देवों की स्वतन्त्र 12 फरवरी 2009 जिनभाषित
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