________________
मूर्तियाँ वेदियों पर जिनेन्द्र भगवान् के साथ अथवा अलग स्थापित किए जाने से लोग उन मूर्तियों को भी जिनेन्द्र भगवान् के सदृश ही पूजने लगे। सम्पूर्ण आचार्यप्रणीत ग्रंथों में इसको गृहीत मिथ्यात्व कहा है। इनकी पूजा उपासना से गृहीत मिथ्यादर्शन पुष्ट होना बताया है। आचार्य समंतभद्र स्वामी ने लौकिक वैभव की प्राप्ति के उद्देश्य से रागद्वेषी देवताओं की उपासना करने को देवमूढता कहा है। यह निर्विवाद है कि वे शासनदेवता रागद्वेषी हैं। और यह भी निविवाद है कि उन रागद्वेषी देवताओं । की उपासना आध्यात्मिक सिद्धि एवं मोक्षप्राप्ति के लिए नहीं की जाती है। उनसे तो लौकिक सिद्धियाँ ही चाही जाती हैं। अतः 'वरोपलिप्सयाशावान्' रूप उद्देश्य एवं 'रागद्वेषमलीमसा' लक्षणवाले देवता दोनों सिद्ध होने से यह उपासना सुनिश्चित रूप से 'देवमूढता' की परिभाषा में ही आती है। बृहद्रव्यसंग्रह ग्रंथ के श्लोक ४१ की टीका में लिखा है- 'ख्यातिपूजालाभरूपलावण्य सौभाग्य पुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतार्तरौद्रपरि णतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामूढत्वं भण्यते न च ते देवता किमपि । फलं प्रयच्छन्ति ।' अर्थात् जीव, ख्याति, पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री, राज्य आदि वैभव के लिए रागद्वेष से आहत आर्त और रौद्रपरिणामवाले क्षेत्रपाल, चंडिका आदि मिथ्या देवों की आराधना करते हैं, उसे देवमूढता कहते हैं। वे देव कुछ भी फल नहीं देते यदि कदाचित् देते भी हों, तो भी निःकांक्षित अंग से युक्त सम्यग्दृष्टि जीव देवताओं से लौकिक वैभव की कभी कामना नहीं करता। कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि अनेक ग्रंथों में रागी द्वेषी देवों की पूजा-आराधना का निषेध किया गया है। धार्मिक दृष्टि से पूजा के पात्र केवल नवदेवता ही हैं। उन नवदेवताओं की पूजा के प्रतिफल में पूजक आध्यात्मिक सिद्धि, अक्षयपद मोक्षप्राप्ति की भावना करता है। रागी-द्वेषी देवताओं से तो इस प्रकार के फल की प्राप्ति की बात सोची भी नहीं जा सकती।
।
सुयोग्य विद्वान् श्री काला जी ने शासनदेवताओं की उपासना के समर्थन में छलपूर्वक प० पू० आचार्य शांतिसागर जी, आचार्य ज्ञानसागर जी एवं आचार्य विद्यासागर जी तक को खड़ा करने का दुस्साहस किया है। आचार्य शांतिसागर जी महाराज ने तो भट्टारकों के प्रभाव से एकत्र की गयीं देवी-देवताओं की मूर्तियों को जैनियों।
Jain Education International
के घरों से निकलवाया था। उन्होंने अनेक बार कहा है कि पद्मावती क्षेत्रपाल आदि असंयमी रागीद्वेषी देवताओं की वंदना श्रावक या मुनि कैसे कर सकते हैं? रागद्वेषी देवताओं की आराधना का निषेध है, चाहे वे जैन हों या अजैन। वैसे स्वर्ग के देवताओं में कोई अजैन देवता होता ही नहीं है, सब जैन ही होते हैं।
आचार्य ज्ञानसागर महाराज द्वारा रचित जयोदय काव्यग्रंथ में उल्लिखित गृहस्थ के लिए लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए कुलदेवता की आराधना की बात को छलपूर्वक अन्यथारूप से प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः जयोदय काव्यग्रंथ पं० भूरामल जी की कृति है, आचार्य ज्ञानसागर जी की नहीं 'पं० भूरामल' आचार्य ज्ञानसागर जी की गृहस्थावस्था का नाम था। श्री काला जी ने ग्रंथ के उक्त श्लोक के पूर्वापर संदर्भ को छिपाते हुए केवल उक्त श्लोक को आचार्यश्री के मन्तव्य के रूप में प्रस्तुत करने का छल किया है। ग्रंथ के रचयिता पं० भूरामल जी ने प्रासंगिक श्लोक के पूर्व में गृहस्थ के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा है कि दृढ़चितवाले एवं नवदीक्षित गृहस्थ के आचरण में अंतर होता है (श्लोक ११) । प्रारंभ में अपरिपक्व दशा में पाक्षिक श्रावक के कार्य सदोष होते हैं, किंतु दार्शनिक उन्हें ही निर्दोष रीति से करते हैं (श्लोक १३) प्रारंभ में जो बात स्वीकार । की जाती है, वही कुछ समय बाद असार हो जाती है ( श्लोक १४) | गृहस्थ को आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए सदैव जिनेन्द्रदेव की उपासना करनी चाहिये, किंतु क्वचित् लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए कुलदेवता आदि की भी साधना कर उन्हें प्रसन्न करना चाहिए। आगे उन्होंने यह भी कहा है कि गृहस्थ जीवन के निर्वाह के लिए अर्थशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र तथा कामशास्त्र आदि का भी अध्ययन करना चाहिए। तथापि आगे श्लोक ६३ में उन्होंने सचेत किया है कि ये सब दुःश्रुति नाम से कहे गये हैं और आगम के समान आदरणीय नहीं हैं। अतः कुलदेवता को प्रसन्न करने की बात प्रारंभिक दशावाले गृहस्थ को लौकिक कार्यों की सिद्धि के प्रंसग में कही गई है, जो अर्थशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, वास्तुशास्त्र, कामशास्त्र आदि की कोटि की बात है। इसको धार्मिक कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत करना ग्रंथकार के अभिप्राय के प्रति अन्याय करना है और साथ ही दिगम्बरजैनधर्म के अवर्णवाद का अपराधी
है।
For Private & Personal Use Only
फरवरी 2009 जिनभाषित 13
www.jainelibrary.org