Book Title: Jinabhashita 2009 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ हैं। ४. भद्रबाहुकृत कल्पसूत्र : विनयविजयोपाध्याय पंचमश्च मुखे ज्ञेयस्तालुदेशे तु धैवतः। इन्होंने भद्रबाहुकृत संस्कृत टीका लिखी है इसमें वाद्यों निषादः सर्वगाते च गेया सप्तस्वरा इति॥ का वर्णन हैं। यह ग्रंथ १७वीं शताब्दी का माना जाता अर्थात् जो स्वर कंठप्रदेश में स्थित है उसे षड्ज, शिरोदेश में स्थित उसे ऋषभ, नासिकप्रदेश में स्थित वह ५. संगीतोपनिषत्सारोद्धार : यह ग्रंथ सुधाकलश | गांधार, हृदयप्रदेश में स्थित उसे मध्यम, मुखप्रदेश में इनका है। इसमें ताल का विशेष वर्णन है। एक मात्र स्थित उसे पंचम तालुप्रदेश में स्थित उसे धैवत तथा ताल से लेकर षष्टिमात्रिक तालों का वर्णन इसमें विस्तार | संपूर्ण प्रदेश में स्थित [शरीर में स्थित] उसे निषाद कहते से किया गया है। ६. जंबूदीवपणपत्तिसंगहो: ग्यारहवीं शताब्दी में इसके आगे ऐसा भी वर्णन हैपद्मनंदी आचार्य-लिखित इस ग्रंथ में कुल १३ उद्देश्य निषादं कुंजरो वक्ति बने गौ ऋषभं तथा। (प्रकरण) कहे गये हैं, और १४२९ गाथाएँ हैं। उसमें अजा वदन्ति गांधारं षड्ज ब्रूते भुजङ्गभुक्॥ से ४ थे प्रकरण की २२४ से २३२ गाथाओं में सा रे ब्रवीति मध्यमं क्रौञ्चो धैवतं च तुरंगमः। ग म प धा नी स्वरों का उल्लेख बड़ा मनोरंजनात्मक पुष्पसंधारणे काले पिकः कूजति पञ्चमम्।। रूप से आया है। कहा गया है अर्थात् हस्ती का स्वर निषाद है, गाय का ऋषभ, सौधर्म तथा ऐशान स्वर्ग के देव तथा देवी सुमेरु | बकरी का गांधार, गरुड़ का षड्ज, क्रौंच पक्षी का पंचम, पर्वत पर तीर्थंकर बालक को अभिषेक हेत ले जाते | घोड़े का धैवत तथा वसंतऋतु मैं कोकिला पंचम स्वर हैं। विशाल देवसेना जुलूस में सम्मिलित होती है। गजरूप- | में कूकती है। धारी देवगण, विद्याधर, कामदेव आदि का षड्ज (सा) ८. पद्मचरित्र : ईसवी की सातवीं शताब्दी में स्वर में गणगान करते हैं। तरंगसेना ऋषभ (रे) स्वर | हुए आचार्य रविषेण का पद्मचरित जैनों के घर-घर में में मांडलिक, महामांडलिक राजाओं का देवरथ सेना गांधार | प्रसिद्ध है। यह ग्रंथ अनेक विषयों का खजाना है। विद्या (ग) स्वर में बलभद्र. नारायण प्रतिनारायण आदि के और कला के साथ साथ संगीत कला के बारे में काफी बलवीर्य का. पैदल सेनामध्यम (म) स्वर में चक्रवर्ती | महत्त्वपूर्ण जानकारी इस ग्रंथ से प्राप्त होती है. अनेक के वैभव, बल, वीर्य आदिका, वृषभ सेना पंचम (प) जगह पद्मचरित में संगीतकला का उल्लेख है। संगीतस्वर में चरमशरीरी मुनियों का, गंधर्वसेना धैवत (ध) शास्त्र के स्वर, वृत्ति मूर्च्छना, लय, ताल, जाति, ग्राम स्वर में गणधरदेव तथा ऋद्धिधारी मनियों का और / आदि शब्दों का प्रयोग और उनमें से अनेकों का विस्तृत नृत्यकारिणी सेना निषाद (नि) स्वर में तीर्थंकर भगवान् | वर्णन किया है। जैसे स्वर शब्द का अर्थके ४६ गुणों का तथा उनके पुण्यमय जीवन का गायन श्रुतान्तरभावी यः शब्दो अनुरणात्मकः। करते हैं। स्वतो रञ्जयते श्रोतुश्चित्तं स स्वर ईष्यते॥ उपरिनिर्दिष्ट वर्णन में पुण्यपुरुषों का सात मूल अर्थात् एक के बाद एक आनेवाली श्रुतियों से स्वरों में गुणगान होता है, यह कहा गया है। पुण्यपुरुष | स्वरनिर्मिती होती है। शब्दों के गुंजन को ही स्वर कहते और स्वर इनका उच्च क्रम मनोवेधक हैं। इसमें सेनाओं हैं। (प्रत्येक शब्द के आघात के बाद उत्पन्न होनेवाली का और स्वर का संबंध किस प्रकार है यह अनुसंधान लहरों का क्रम से उत्पन्न होना और क्रम से विलीन विषय है। होना गुंजन कहलाता है।) गुंजन यही स्वरों का मुख्य ७. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा : इस ग्रंथ की श्री | रूप है, क्योंकि गुंजन में ही स्वर-श्रुतियों का प्रकटीकरण शुभचंद्राचार्य ने संस्कृत टीका लिखी है। इस टीका में | होता है। हर एक स्वर, अपने आप में अन्य स्वर की उन्होंने सप्तस्वर तंत्रीरूप कंठ से उत्पन्न होते हैं, ऐसा | लिखा है। उन्होंने स्वरों के स्थानों का भी उल्लेख किया पद्मचरित में मूर्च्छना के बारे में भी काफी कुछ कहा गया है। वैसे मूर्च्छन धातु का अर्थ चमकना या कण्ठदेशे स्थितः षड्जः शिरस्थऋषभस्तथा। । उभरना है। कुछ लोग श्रुति के मृदुत्व को ही मूर्च्छना नासिकायां च गांधारो, हृदये मध्यमो भवेत्॥ | कहते हैं, कुछ लोग रागरूपी अमृतसरोवर में गायक तथा -फरवरी 2009 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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