Book Title: Jinabhashita 2007 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ जैन शास्त्रों में मोक्ष और मोक्ष के कारणों की चर्चा । की है। कारणों से मतलब उनका मोक्षमार्ग से है । मोक्षमार्ग को उपाय और मोक्ष को उपेय माना है। उपायभूत मोक्षमार्ग के भी दो भेद किये हैं- एक निश्चय मोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग | निश्चय मोक्षमार्ग को निश्चय रत्नत्रय और व्यवहार मोक्षमार्ग को व्यवहार रत्नत्रय कहा है और लिखा है कि इन दोनों में साध्य साधक भाव है । अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है । इसी आशय को लेकर आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गों द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ अर्थात् निश्चय व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। इनमें पहला साध्य है और दूसरा साधन है। इस कथन से स्पष्ट है कि व्यवहार रत्नत्रय को निश्चय रत्नत्रय की कारणता है, न कि इन दोनों से परे मोक्ष की। जैन विद्वान् प्रारम्भ से उक्त बात ही कहते आ रहे हैं। उन पर यह थोपना कि वे मोक्ष का कारण व्यवहार रत्नत्रय को ही मानते हैं, गलत है, मनगढ़न्त है । हमें यह भी नहीं सूझ पड़ता कि किसी विद्वान् ने व्यवहार रत्नत्रय को मोक्ष का मूल कारण बतलाया है और यदि बताया भी है, हमने यह नहीं सुना कि जो स्वयं कार्यरूप परिणत हो जाय वह मूल कारण है । उपादान के सम्बन्ध में तो यह कहा जा सकता है कि वह कार्यरूप परिणत हो जाता है, परन्तु सभी मूल कारण उपादान हों, यह बात नहीं है । वास्तव में तो मूल कारण आद्य कारण ही कहा जाता है और यदि इस अर्थ में व्यवहार रत्नत्रय को मूल कारण कहा जाय, तो कोई बेजा बात नहीं है। निश्चय रत्नत्रय के लिये व्यवहार रत्नत्रय की मूल कारणता भी उसी तरह है जिस तरह वृक्ष के लिये जड़ की कारणता है। जड़ के बिना यदि वृक्ष की स्थिति नहीं है, तो व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चय रत्नत्रय की भी स्थिति नहीं है और जब निश्चय रत्नत्रय की स्थिति नहीं तब मोक्ष भी कहाँ टिक सकता है ? अतः यह कहना भी गलत नहीं है कि पहले यदि व्यवहार रत्नत्रय न हो, तो निश्चय रत्नत्रय और मोक्ष दोनों ही नहीं हो सकते। 6 व्यवहार रत्नत्रय अप्रैल 2007 जिनभाषित Jain Education International स्व. पं० लालबहादुर जी शास्त्री बीज वृक्ष का कारण है, वृक्ष पुष्पों का कारण है, पुष्प फलों का कारण है। फलोदय के समय जैसे बीज का कोई अस्तित्व नहीं रहता, उसी प्रकार मोक्षफल की प्राप्ति के समय व्यवहार रत्नत्रय का अस्तित्व नहीं रहता । पर बीज का वृक्ष, पुष्प, फल के लिये जो महत्त्व है वही महत्त्व व्यवहार रत्नत्रय का निश्चय रत्नत्रय और मोक्ष के लिये है । समन्तभद्र स्वामी ने जो यह लिखा है 'जैसे बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होता, वैसे ही सम्यक्त्व के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होता।' इस कथन में फलोदय से मतलब मोक्ष से ही है और सम्यक्त्व से अभिप्राय व्यवहार रत्नत्रय से है । रत्नकरण्ड में सबसे पहले उन्होंने दर्शन ज्ञान चारित्र को धर्म लिखा है और फिर दर्शन का लक्षण लिखा है ' श्रद्धानां परमार्थानामाप्तागम तपोभृतां त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम्' अर्थात् परमार्थभूत देव शास्त्र गुरु का श्रद्धान करना, तीन मूढ़तायें और आठ मद छोड़ना तथा आठ अंगों का पालन करना सम्यग्दर्शन है । इस लक्षण से स्पष्ट ही आचार्य का अभिप्राय व्यवहार रत्नत्रय से है। इसी व्यवहार सम्यक्त्व को लेकर उन्होंने लिखा है कि बिना सम्यक्त्व के ज्ञान चारित्र नहीं होते, न उनकी स्थिति, वृद्धि, फलोदय होते हैं । अतः वृक्ष के बीज की तरह व्यवहार रत्नत्रय को यदि मोक्ष का मूल कारण मान लिया जाय, तो क्या आपत्ति है? मूल कारण से मतलब यहाँ आद्य कारण से ही है, जैसा कि फलोदय के लिये बीज आद्य कारण है। वृक्ष की स्थिति निश्चय रत्नत्रय जैसी है और बाद में फलोदय की स्थिति मोक्ष जैसी है । इसलिये इसमें किसको आशंका है कि व्यवहार रत्नत्रय परम्परा से मोक्ष का कारण है ? जैन विद्वान् बहुत पहले से ही व्यवहार को परम्परा से मोक्ष का कारण कहते आ रहे हैं। व्यवहार रत्नत्रय मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है, किन्तु उसकी मूल कारणता से इनकार नहीं किया जा सकता है। किसी भी कार्य की उत्पत्ति में कारणों की जो परम्परा है उसमें पहला कारण ही मूल कारण है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि मोक्ष का साक्षात् कारण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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