Book Title: Jinabhashita 2007 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ पर्व जैन समाज की भाँति हिन्दू समाज में भी मनाया जाता है। बुंदेलखण्ड में यह पर्व ' अकती ' के रूप में प्रसिद्ध है । ये दोनों ही शब्द अक्षयतृतीया के ही अपभ्रंश रूप हैं। अक्षय तृतीया को लोग इतना अधिक शुभ मानते हैं कि इस दिन बिना लग्न संशोधन के भी शुभ कार्य किये जाते हैं। इस दिन प्रायः सभी शुभकार्य-नवीन मकान, दुकान या अन्य नए कार्य का मुहूर्त करने में लोग गौरव मानते हैं, सुगन्धी चौध इस जीव ने संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य बनकर लौकिक । आत्मस्वभाव से विपरीत है । दुःखमय व दुःख के कारण शिक्षा व गिनती तो सीख ली, किन्तु अध्यात्म की हैं और आत्मा पवित्र, सुखमय एवं सुख का कारण है। कल्याणकारी गिनती आज तक न सीखी। इस अध्यात्म की गिनती से संसार छूटेगा । लौकिक गिनती से संसार का काम चलेगा और इस गिनती से परलोक का काम चलेगा। चार का अंक कहता है- चार विकथा, चार कषाय, ये संसार के कारण हैं, तो प्रशम, संवेग, अनुकंपा व आस्तिक्य ये चार भावनाएँ सम्यग्दृष्टि को ही होती हैं। अनन्तानुबंधी आदि चार कषायें भावों की निर्मलता व आत्मपरिणामों की स्थिरता का निमित्तपाकर, क्रम से नष्ट होती जाती हैं। गुणस्थानों की वृद्धि इन्हीं कषायों के जाने से होती है । पाँच का अंक बताता है कि पाँच पापों का त्याग करते हुए, पाँच अणुव्रत महाव्रत व पांच ही समितियों का पालन भी क्रमशः ही होता है। छह काय के जीवों की रक्षा का भाव यदि न हो, तो वह जीव जैन नाम नहीं पाता है। आचार्यों ने पांच इन्द्रिय व मन को वश में करते हुए, १२ अविरति को भी त्यागने की बात कही है । ६ द्रव्य, ७ तत्त्वों, ९ पदार्थों व ५ अस्तिकायों में जीवराजा की ही प्रमुखता है। सात के अंक को क्यों छोड़े? ७ व्यसनों का त्यागना भी जरूरी है। ८ मूलगुणों का पालन करना प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य है । ९ देवता, ९ निधियाँ, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण ९ बलभद्र इनकी चर्चा भी प्रथमानुयोग के ग्रंथों में मिलती । १० धर्मों के माध्यम से दशलक्षण पर्व मनाया जाता है। श्रावक की ११ प्रतिमाएँ, १२ व्रत, मुनियों का तेरह प्रकार का चारित्र, १४ - १४ गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास भी आगम में बताये हैं। प्रमाद के १५ भेदों को भी नहीं भूलना है। १६ कारण भावनाओं के भाने से तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है । १८ दोष अरहंत भगवान् के नहीं होते हैं। मुनिराज २२ परीषहों को सहन करते हुए ४६ दोषों को टालते हैं । ३२ प्रकार के अंतराय को टालते हुए आहार लेते हैं। बस इतनी ही गिनती सीखना पर्याप्त है । स्वयं विचार करना है। एक शब्द अपनी आत्मा व मिथ्यात्व की ओर इशारा करता है । 'एक अकेला मेरा आत्मा है जिसका आश्रय लेकर मनन-चिंतन-अनुभव करके संसार का किनारा पा सकते हैं। यदि इसका सहारा न लिया तो एक अकेला मिथ्यात्व चार गतियों, चौरासी लाख योनियों में भटकता रहा है और भटकाता रहेगा।' सीखो अध्यात्म की गिनती दो की गिनती जीव के रागद्वेष की याद दिलाती है कि हे जीव, तू अनादि से यही करता आ रहा है। प्रिय वस्तु से राग व अप्रिय वस्तु से द्वेष । पं. प्रवर टोडरमल जी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में जीव के दुःखी होने की बात कही है कि यह जीव इष्ट वस्तुओं को रखना चाहता है और अनिष्ट वस्तुओं को हटाना चाहता है। इष्ट वस्तुयें सदा उसके साथ बनी रहें, ऐसा होना तो असंभव है। सो दुःखी होता है। यदि जीव सुखी होना चाहता है, तो यह सूत्र याद रखे कि अनादि अनिधन वस्तुयें, अपनी-अपनी सीमा में रहकर, स्वयं ही परिणमित होती हैं। इन्हें अपने अनुसार परिणमित कराने का भाव मिथ्या है। तीन का अंक बताता है कि मन-वचन-काय की चंचलता कर्मों के आस्रव-बंध का कारण है। इन्हीं के कारण जीव तीनों लोकों में भटकता फिरता है। छहढाला में पं. प्रवर दौलतराम जी ने कहा है कि 'जो योगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई । आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हें निरवेरे ॥' समयसार की ७२वीं गाथा' में भी आत्मा व आस्रव में अंतर बताया है। 'आस्रव अशुचि व 24 अप्रैल 2007 जिनभाषित उनका विश्वास है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमतः सफल होता है । जिस दिन उदयकाल में उक्त तृतीया हो उसी दिन अक्षय तृतीया का उत्सव सम्पन्न करना चाहिए। दान देना, पूजा करना, अतिथि सत्कार करना आदि विधेय कार्यों को इस तिथि में करना चाहिए। आर. के. हाऊस, किशनगढ़ (राजस्थान ) Jain Education International For Private & Personal Use Only दीपचंद एण्ड संस गौरमूर्ति, सागर (म. प्र. ) www.jainelibrary.org

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