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अक्षयतृतीया पर्व
सुशीला पाटनी प्रतिवर्ष वैशाख शल्क ततीया को अक्षय ततीया पर्व । श्रेयांस हे भगवान! तिष्ठ-तिष्ठ. ठहरिए-ठहरिए कहकर मानाया जाता है। यह पर्व प्राचीन है। इस दिन प्रथम तीर्थंकर | उन्हें घर के भीतर ले गए और उच्चासन पर विराजमानकर ऋषभदेव ने निर्ग्रन्थ अवस्था में हस्तिनागपर के राजा श्रेयांस | उनके चरण-कमल धोए. उनके चरणों की पजा करके उन्हें के यहाँ आहार लिया था, तभी से उनके निमित्त से यह पर्व | मन, वचन, काय से नमस्कार किया और सम्पर्ण लक्षणों से प्रारम्भ हआ। भगवान ऋषभदेव मानव संस्कृति के आदि | युक्त पात्र को देने की इच्छा से उन्होंने इक्षरस से भरा हआ संस्कर्ता हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे सषमा- | कलश उठाकर कहा कि हे प्रभो! यह इक्षरस सोलह उदगम दुषमा नामक काल में जब चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, | दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष तथा धूम, अगार, आठ माह, एक पक्ष बाकी रह गया था तो आषाढ़ कृष्णा | प्रमाण और संयोजना इन चार दाता सम्बन्धी दोषों से रहित द्वितीया के दिन अन्तिम कुलकर नाभिराय की पत्नी मरूदेवी एवं प्रासुक है, इसे ग्रहण कीजिए। अनन्तर जिनकी आत्मा के गर्भ में ऋषभ आये। नव मास के बाद चैत्रकृष्ण नवमी के | विशुद्ध थी और जो पैरों को सीधाकर खड़े थे ऐसे ऋषभदेव दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में उनका । | ने क्रिया से आहार की विधि दिखाते हुए चारित्र की वृद्धि के जन्म हुआ।
लिए पारणा किया। राजा श्रेयांस ने कल्याणकारी श्री एक दिन राज-सभा में देवी नीलांजना का नृत्य देखते | | जिनेन्द्ररूपी पात्र को आहारदान दिया इसलिए पाँच प्रकार हुए अकस्मात् उसकी आयु समाप्त हुई जानकर ऋषभदेव | की आश्चर्यजनक विशुद्धियों से ये पञ्चाश्चर्य प्राप्त हुए- 1. संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गये और लौकान्तिक | रत्नवृष्टि, 2. पृष्पवृष्टि, 3. दुन्दुभि का बजना, 4. शीतल देवों के द्वारा प्रस्तुत होकर देवों के द्वारा लाई हुई सुदर्शना | और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु का चलना, 5. 'अहो दानम्' नामक पालकी पर आरूढ़ होकर अयोध्या नगरी से बाहर | इत्यादि प्रशंसा वाक्य। अर्चित होने के बाद जब तीर्थंकर कुछ दूर पर सिद्धार्थ नामक वन में पहुँचे। पंचमुष्टि केशलोंच | ऋषभदेव तप की वृद्धि के लिए वन को चले गए तब देवों ने करके उन्होंने सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर दिया और ऊँ | राजा श्रेयांस की पूजा की। देवों से समीचीन दान और उसके नमः सिद्धेभ्य: कहते हुए उन्होंने दीक्षा ले ली। वह दिन चैत्र | फल की घोषणा सुनकर भरत और राजाओं ने भी आकर वदी नवमी का था। छह मास मौन साधना करने के बाद वे | राजा श्रेयांस की पूजा की। आहार के लिए नगर और ग्रामों में विहार करने लगे। भावुक | पूर्व घटना का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी मनुष्य भगवान् के दर्शनकर भक्ति-भावना से विभोर होकर | धर्म की विधि चलाई उस दान का प्रत्यक्ष फल देखनेवाले अपनी रूपवती कन्याएँ, सुन्दर वस्त्र, अमूल्य आभूषण, हाथी, | भरत आदि राजाओं ने बड़ी श्रद्धा के साथ श्रवण किया। राजा घोड़े, रथ, सिंहासन आदि वस्तुए भेंट करने लगे। कोई भी | श्रेयांस ने बताया कि दान सम्बन्धी पुण्य का संग्रह करने के विधिपूर्वक उन्हें आहार नहीं देता था, क्योंकि आहार देने की | लिए 1. अतिथि का प्रतिग्रह (पड़गाहना), 2. उच्च स्थान विधि उन्हें ज्ञात ही नहीं थी। इसप्रकार पुनः उन्होंने छह माह | पर बैठना, 3. पाद-प्रक्षालन करना, 4. दाता द्वारा अतिथि की निराहार रहकर योग साधना की। छह माह बाद पुनः आहार | पूजा करना, 5. नमस्कार करना, 6. मनः शुद्धि, 7. वचन के लिए हस्तिनापुर की ओर आए। दूर से ही उन्हें आता | शुद्धि,8. काय शुद्धि और 9. आहार शुद्धि ये नवधा भक्ति/नौ हुआ देखकर राजा श्रेयांस को अपने पूर्व जन्म का स्मरण हो | प्रकार जानने योग्य हैं। दान देने से जो पुण्य संचित होता है आया। इस भव से आठ भव पहले भगवान् ऋषभदेव राजा | वह दाता के लिए स्वर्गादि फल देकर अन्त में मोक्षफल देत वज्रजंघ ने वन में दमधर और सागरसेन नामक मुनिराज को | है। आहार दिया था। उस आहार-दान के प्रभाव से देवों ने जिस दिन ऋषभदेव को आहार हुआ उस दिन वैशाख पञ्चाश्चर्य किए थे। ।
तृतीया थी। राजा श्रेयांस के यहाँ उस दिन रसोई गृह मे चान्द्रीचर्या से विचरण करते हुए भगवान् ऋषभदेव | | भोजन अक्षीण (जो क्षीण न हो, समाप्त न होने वाला) हो के सामने आने पर दान-धर्म की विधि के ज्ञाता और उसकी | गया। अतः इसे आज भी लोग 'अक्षय तृतीया पर्व' कहते स्वयं प्रवृत्ति कराने वाले श्रद्धा आदि गुणों से युक्त राजा । हैं। भरत क्षेत्र में इसी दिन से दान की प्रथा प्रचलित हुई। यह
अप्रैल 2007 जिनभाषित 23
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