________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 0 मुनि श्री योगसागर जी श्री नेमिनाथ-स्तवन टश्री पार्श्वनाथ स्तुति (नवजा कन्द) श्री नेमिनाथ वर कीर्ति वाले। वे मील वर्णित शरीरवाले // देवीच्य माना मणि नील जैसे। सौन्दर्य की परिपूर्णता से॥ देवाधिदेवा हे पार्श्वनाथा / हे वीतरागी शिव विश्वनाथा // अर्हत् जिनेशा शत इन्द्रवश्या / हे सूर्य मेरे मम पाप संध्या॥ कारुपयहाथी पशु क्रन्दनों से। जागी अहिंसा उस स्त्रोत में से॥ क्या वे सभी पाप विवाह के हैं। क्यों भोग भोगे घर को सलायें। हे विघ्नहर्ता भवरोग = वैद्य।। जो नाम जो हर कार्य साधा। सागी न द्वेषी सम भाव रूपी। चैतन्धगुण मिज आत्मरूपी॥ 3 कैवल्यज्ञानी भवदुःखमुक्ता। निर्मोहला से वसु कर्म जीला / / त्रैलोक्य के सर्व पदार्थ जाने। आत्मीय आनन्द अपूर्व पाया। संसारमाया लख के विस्वती। वैराग्य ज्योत्स्ना बढ़ने लगी थी। संसार में ना उन को सुहाये। निम्रन्ध दीक्षा मन को लुभाये // क्या देह में ही ममता रही हैं। क्या रूम मेरा यह ज्ञात ना है। स्वाधीनता क्या जम में हमारी। ज्योतिर्मुखी आत्म स्वरूप मेस। पर्याय बुद्धी भव में भ्रमावे। लास्विक ज्ञानी भव को मिटाये। यह सारपूर्णा लव देशना है। वैराग्य को जाग्रत कराये। 5 योगेश का दुर्धर योग होता। घोसतिघोस उपसर्ग जीता। नागेन्द्र का आसन भी हिलाया। ओ ही फणा मंडप को किया था। स्वामी चल्ले पर्वत उर्जयन्त। साम्राज्य सत्ता सबसे विरक्त // धारे अनेकों लव त्यामध्यान। चैतन्य लक्ष्मी प्रगटी महान् // प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org