Book Title: Jinabhashita 2007 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ चावल और फल होते हैं। जैन मंदिर में जाकर वे अपने भगवान् को प्रसाद भेंट करते हैं और फिर प्रार्थना करते हैं। 10 इसप्रकार करके, उसके बाद अगले मंदिर में जाते हैं। एक मात्र विदेशी पर्यटक होने के कारण भारतीय लोग हमें घूरकर निरंतर देखते हैं और बाद में हमसे हमारा नाम और किस देश से आये हैं, यह पूछते । लगभग दोपहर 11 को हम नीचे उसी मंदिर में आ गए, जहाँ से हमने प्रातः यात्रा प्रारम्भ की थी । यहाँ हमने खुले आसमान में नग्न साधुओं को अपने गुरु के चारों और बैठे देखा। जैन माताएँ^2 साधुओं को घेरकर बैठी थीं। यह बैठने का ढंग अत्यन्त लुभावना था। ताँबो जैसे रंग के साधुओं को घेरकर सफेद साड़ी पहने माताएँ बैठी थीं। बाद में हमें बताया गया कि इस अवसर पर नई दीक्षित माताओं को उनके गुरुद्वारा नया नाम दिया गया। 13 इस समारोह के बाद जैन साधु अपने-अपने कक्षों में चले गए। वे आसानी से इधर-उधर जा आ रहे थे। अपनेअपने कक्ष में वे जैन धर्मावलम्बियों से मिलकर उनके प्रश्नों के या तो उत्तर दे रहे थे या धर्म की बातें उन्हें बता रहे थे I माइक और मैंने एक-दो साधुओं से बात की। वे बहुत अच्छी अँग्रेजी में बात कर लेते थे। हमें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि अधिकांश साधुओं ने अपने बहुत अच्छे सम्पन्न पद और स्थिति को छोड़कर, सभी कुछ त्यागकर ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया था। जैन साधु पूर्व में उच्च पदों, जैसे इंजीनियर, एकाउण्टेण्ट, शेयर दलाल आदि पर प्रतिष्ठित थे। इसीप्रकार जैन माताएँ भी उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएँ थीं, जिन्होंने सब कुछ त्यागकर दीक्षा ग्रहण की थी। इतने उच्च पदों पर प्रतिष्ठित होने और सम्पन्न होने के बावजूद भी उन्हें मानसिक संतोष और शांति नहीं मिली थी। इसलिए साधु एवं माताएँ इस धार्मिक मार्ग में आए थे, जहाँ उन्हें उन सभी प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो गए थे जिनको वे खोज रहे थे। मैंने उनमें से एक से पूछा, आप इसप्रकार सब कुछ छोड़कर क्या अब प्रसन्न हैं? उनका उत्तर था, हाँ, मैं प्रसन्न हूँ और प्रत्येक क्षण मेरी प्रसन्नता बढ़ती जा रही है । ' मेरे पति ने कम दार्शनिक प्रश्न पूछे, जैसे, क्या आपको ठण्ड नहीं लगती? या 'क्या आपको कभी आइसक्रीम खाने की इच्छा नहीं होती?' दिगम्बर जैन साधु पूरे भारत में छोटे-छोटे गाँवों में 16 अप्रैल 2007 जिनभाषित Jain Education International पूरे जीवन भ्रमण करते हैं। वे कभी वस्त्र नहीं पहनते, न यात्रा में किसी वाहन का उपयोग करते हैं। वे नग्न ही एक शहर से दूसरे शहर में भ्रमण करते हैं। उनका ध्येय गाँवगाँव में जैनधर्म का प्रचार करना और अन्य लोगों की सहायता करना होता है । वे हमेशा एक पिच्छिका और पानी के लिए कमण्डलु साथ में रखते हैं । पिच्छिका मयूरपंख की बनी होती है और वे उस स्थान पर, जहाँ उन्हें बैठना होता है, प्रमार्जन करते हैं जिससे किसी क्षुद्र जीव-जन्तु का घात न हो नग्न साधुओं के धर्म को दिगम्बर धर्म कहा जाता है। वे कभी वस्त्रों का उपयोग नहीं करते क्योंकि वे नियमित गृहस्थ जीवन का त्याग कर चुके हैं। उन्होंने सभी प्रकार के परिग्रह का त्यागकर इस धार्मिक विधि को अपनाया है । माताएँ केवल सफेद साड़ी ही पहनती हैं। मुझे यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि साधु और माताएँ एक दूसरे को साधु ही कहती हैं। 14 जैन अपने साधुओं का बहुत सम्मान करते हैं और हमेशा उन्हें प्रणाम ( झुककर ) करते हैं। वे कभी भी उनके सामने नहीं चलते और न कभी उन्हें स्पर्श करते हैं। वे केवल उनकी आज्ञा से पैर छू सकते हैं। यही उनका आशीर्वाद देने का तरीका है। 15 मैंने और मेरे पति ने उन्हें आहार ग्रहण करते हुए भी देखा। साधु और माताएँ दिन में केवल एक बार ही आहार मध्याह्न में करते हैं और उन्हें केवल जैन धर्मावलम्बी ही आहार देते हैं। आहार के समय जैन परिवार एक समूह में खड़े होकर साधुओं और माताओं से उनके यहाँ ही आहार ग्रहण करने के लिए आग्रह करते हैं । जब विधि के अनुसार वे आहार प्रदान करने वाले व्यक्तियों का निर्णय करते हैं एवं उसके शांत स्थान पर जाकर आहार ग्रहण करते है । साधु खड़े होकर केवल अपने हाथों में ही आहार ग्रहण करते हैं। वे थोड़ा आहार सामग्री हाथों पर रखे जाने के बाद उसे मुँह की ओर ले जाकर, मुँह से चबाकर भोजन लेते हैं । दिगम्बर जैन पूर्ण रूपेण शाकाहारी होते हैं और वे कुछ सब्जियों या फलों का उपयोग करते हैं। मांसभक्षण के अलावा भी वे अण्डे, दूध के पकवान, प्याज, लहसुन आदि का उपयोग नहीं करते। 16 यद्यपि हमारा धर्म अलग है, हम जैन धर्म को नहीं पालते, लेकिन फिर भी भारतीयों ने हमें बहुत आदर-सत्कार दिया और कई अवसरों पर आवश्यकता से अधिक हमारा ध्यान रखा । हमारी कुण्डलपुर यात्रा एक बहुत बड़ी उपलब्धि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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