Book Title: Jinabhashita 2007 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ मिथ्यात्व-निवारक धर्ममूर्ति 'चारित्रचक्रवर्ती' । डॉ. राजेन्द्रकुमार बसंल श्री कार्तिकेय स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मुनिधर्म । वीतरागी देव, वीतरागी शास्त्र, वीतरागी गुरु और वीतरागी का स्वरूप निम्न रूप से व्यक्त किया है धर्म के आश्रय से होती है। रागी देव-शास्त्र-गुरु-धर्म से जो रयणत्तयजुत्तो,खमादिभावेहिं परिणदोणिच्चं। । वीतरागता का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरा जैन दर्शन सव्वत्थ वि मज्झत्थो, सो साहू भण्णदे धम्मो॥३९२॥ | स्वावलम्बन से स्वतंत्रता का मार्ग बताता है। इसमें परावलम्बन अर्थ- जो पुरुष रत्नत्रय सहित हो, क्षमादि भावों से | इष्टकारक नहीं होता। तीसरा, व्यक्ति का इष्ट-अनिष्ट उसके नित्य परिणत हो सब जगह (सुख-दुख, तृण-कंचन, लाभ- | कर्मोदय से होता है और उसी अनुरूप बाहय साधन मिल अलाभ, शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा, जीवन-मरण में) समभाव | जाते हैं। कर्मबंध आदि भावाश्रित हैं। रूप रहे, राग-द्वेष रहित रहे, वह साधु है और उसी को धर्म | उक्त दार्शनिक दृष्टि से आचार्य शांतिसागर जी धार्मिक कहते हैं वही धर्म की मूर्ति है। जीवन यात्रा को देखते हैं तो सच्चे अर्थों में जैन साधु और बीसवीं शताब्दी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री | धर्म की मूर्ति जैसे लगते हैं। आपका जन्म सन् १८७२ में शांतिसागर जी मुनिराज का दर्शन करने का सौभाग्य नहीं बेलगांव जिले के येलगल ग्राम में क्षत्रिय वंश में हआ। आप मिला। आचार्यश्री की समाधि दि. १८/९/१९५५ को हुई उस | चतुर्थ जैन थे। नामकरण सातगौंडा हुआ। आप स्वभाव से समय लेखक छात्र के रूप में बड़वानी में था और उसने | सरल, धार्मिक वृत्ति के संयमी जीवन के आराधक थे। वियोग की पीड़ा में 'आज तो ऊषा लिये कुछ कालिमा है' | उनमें नैसर्गिक साधुत्व था। शरीर से बलिष्ट, मन से पवित्र कविता लिखी थी। आचार्यश्री का प्रेरक परिचय पं. प्रवर श्री | और ज्ञान की पिपासा से युक्त थे। वे बचपन से ही स्वाध्याय सुमेरचन्द्र जी दिवाकर, सिवनी की अद्भुतकृति 'चारित्र- | प्रिय थे और चारों अनुयोगों का स्वाध्याय करते थे। आचार्यश्री चक्रवर्ती' (प्रथम संस्करण १९५३) से हुआ। आगम के | के शब्दों में "जब हम १५-१६ वर्ष के थे तब, हिन्दी में आलोक में जब आचार्यश्री के अंतरंग एवं बहिरंग स्वरूप समयसार तथा आत्मानुशासन वॉचा करते थे। उनके पढने से पर विचार करते है तब वे श्री कार्तिकेय स्वामी जी की उक्त | हमें विशेष लाभ हुआ, वैसे अन्य सभी आगम उपयोगी ग्रंथ भावनानुसार धर्म की मूर्ति के रूप में सहज ही दिखाई देते | हैं।" (चा. चक. प्रथम संस्क. पृ.४५१) आपका लौकिक जीवन नैतिक प्रमाणिक और परोपरकारी था। जैन धर्म परसमय से स्वसमय, राग से वीतरागता, पिता श्री की मृत्यु के चार साल बाद ४३ वर्ष की उम्र अल्पज्ञ से सर्वज्ञ और इंद्रिय से अतिन्द्रिय आनंद प्राप्त कराता | | में सातगौंडा ने सन् १९१५ में श्री देवेन्द्र कीर्ति मुनिराज से है। इसका शाश्वत राजमार्ग 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और क्षुल्लक दीक्षाग्रहणकर लघुमुनित्व धारण किया। आप सम्यक्चारित्र की एकता'रूप आत्मपरिणाम है। वस्तु-स्वरूप जिनेश्वरी मार्ग के पथिक बने। आपके शब्दों में हम व्यवहार धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। उससे मोह-क्षोभ परिणाम विहीन | क्रियाओं को पालते हैं। किन्त हमारा ध्यान निश्चय पर अधिक है'। (पृ.६०) आपने प्रथम चातुर्मास को गनोली में साधु होते हैं। किया। वहाँ आपने अनुभव किया कि समाज गृहीत मिथ्यात्व ज्ञानावर्णादिक, द्रव्यकर्म, शरीरादिक नोकर्म तथा | से पीडित है। अत: आपने गहीत मिथ्यात्व छडाने का संकल्प क्रोधादिक भावकर्म से भिन्न ज्ञान-स्वरूप आत्मा की रूचि | किया। इसमें आप अतिशयरूप से सफल रहे। या प्रतीति सम्यग्दर्शन कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने | गृहीत मिथ्यात्व त्याग का महान प्रचाररयणसार में कहा है कि जिनके आठमद, तीनमूढ़ता, छह | चा. चक्रवर्ती पृष्ठ ७५ पर अंकित है "इन्होंने देखा अनायतन, शंकादि आठ दोष, सात व्यसन, सातभय और | कि लोगों में कुदेवों, रागी द्वेषी मिथ्यादेवों की भक्ति विद्यमान नियमव्रत के उल्लंघन स्वरूप पाँच अतिचार मिलाकर | है। लोग जिनेन्द्र देव को भूलकर चतुर्गति संसार में डुबाने चवालीस दूषण नहीं होते हैं। (गाथा ७) वालों की आराधना में संलग्न हैं, इससे इनके अंत:करण में साध्य अनुरूप साधनों से इच्छित लक्ष्य की पूर्ति | समाज के मिथ्यात्व रोग को दूर करने की भावना उत्पन्न होती है। वीतराग शुद्धात्मा की प्राप्ति या मोक्ष की उपलब्धि हुई।" इस उद्देश्य हेतु महाराजश्री ने नियम कर लिया 'जो - अप्रैल 2007 जिनभाषित १ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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