Book Title: Jinabhashita 2007 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ दोशी सोलापुर द्वारा संपादित एवं प्रकाशित 'सम्यक्त्व बोधक' । उत्तर में महाराजश्री ने कहा कि- 'आहार दाता के यहाँ मराठी पत्रिका का एक दिसंबर अंक सन् १९२३, पृ. ४ के | उपरोक्त प्रतिबंध की बात मिथ्या है।' आचार्यश्री के इस समाचार का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ जो आचार्यश्री | उत्तर से स्पष्ट है कि वे विजातीय विवाह को आगमविरुद्ध के प्रभाव को दर्शाता है। (जिनभाषीत, नवम्बर ०५)। नहीं मानते थे। (संदर्भ-जैनमित्र, ६/१/१९३८, अंक ९वाँ, ___ " मुनि श्री शांतिसागर जी का केशलोंच मुकाम- | वीर सं.२४६४) शेडवाल- यहाँ मगंसर शुक्ला ८ के दिन मुनि शांतिसागर | आचार्यश्री की धर्म देशनाजी का केशलोंच बड़े समारोह के साथ हुआ। उस समय । आचार्यश्री ने वीतरागता की प्राप्ति हेतु जीवनपर्यंत उस गांव के बाहर गांव के मिलकर तीन/चार हजार दि. रत्नत्रयरूप जैन धर्म की साधना की। सम्यक्त्व, ज्ञान और जैन एकत्रित हुये थे। जैन समाज से मिथ्यात्व निकालने | संयम के वे आराधक थे। आपने अंतिम संदेश में दर्शन का और निर्माल्य का त्याग करने का उपदेश मुनिराज हमेशा | मोहनीय कर्म के क्षय एवं कर्म की निर्जरा हेतु आत्मचिंतन देते हैं। गत चातुर्मास में कोन्नुर में दिये गये उपदेश से | करने का उपदेश/आदेश दिया। चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय करीबन दो हजार जैनियों ने अपने घर से खडोंवा, बिठोवा, | हेतु संयम धारण करने की मार्मिक प्रेरणा दी। आत्मानुभव भवानी, यल्लम्मा आदि मिथ्या देवताओं को निकाल दिया | के बिना सम्यक्त्व नहीं होता। व्यवहार सम्यक्त्व निश्चय है। करीब १५-१६ उपाध्ये (पुजारी) लोगों ने निर्माल्य को | सम्यक्त्व का साधन बताया। आत्मचिंतन से मोक्ष सहित नहीं खायेंगे, ऐसी प्रतिज्ञा ली है। आज तक दस हजार | सर्व कार्य सिद्ध होने का कहा।'धर्मस्य दया मलं'। जिनधर्म जैनियों ने अपने घर से मिथ्या देवताओं को निकाला होगा। | का मूल सत्य, अहिंसा और दया है। सत्य में सम्यक्त्व आ महाराज ने ऐसा कहा- करीबन २००/४०० लोगों ने | | जाता है। सम्यक्त्व धारण करो, संयम धारण करो, तब आपका क्षेत्रपाल-पद्मावती आदि शासन देवताओं की उपासना | कल्याण होगा। आचार्यश्री गृहीत मिथ्यात्व निवारक धर्म नहीं करेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा उनका उपदेश सुनकर ली है, ऐसा मूर्ति थे। उन्होंने (आचार्यश्री ने कहा, इससे लगता है कि उनके आचार्यश्री ने सज्जातित्व संरक्षण को धर्म या धर्मउपदेश से मिथ्यात्व बिल्कुल समाप्त हो जायेगा और रक्षा के रूप में कहीं भी नहीं दर्शाया। आचार्यश्री रत्नत्रयरूप (उपाध्ये)पुजारी निर्माल्य खाना बंद कर देंगे ऐसी आशा | धर्म एवं लोक व्यवहार की भेद रेखा लौकिक मान्यताओं निर्माण हो गई है।" की पुष्टि करना उचित नहीं है। आगमनिष्ठ आचार्यश्री परम्परा विद्वान सम्पादक महोदय एवं पूज्य आचार्यश्री ने यह | से प्रवाहित/पोषित वीतरागी आगम और मल संघ के आदर्श कल्पना भी नहीं की होगी कि जिस मिथ्यात्व रूपी पाप के | प्रतिनिधि थे। उनका जीवन निष्पृह, निष्कपट, पावन था। विरुद्ध उन्होंने सामाजिक क्रांति की, उस क्रांति के विपरीत उनका व्यक्तिव अत्यंत विराट था उसे किसी संकीर्ण सीमा आचार्यश्री के संघ के उत्तराधिकारी एवं विद्वानगण निर्ममता | | में बांधना उनका अवर्णवाद करना होगा। आचार्यश्री को पूर्वक मिथ्यात्व का पोषण करेंगे और अपना मांगलिक | किसी ऐसी संस्था या पोषक से सम्बद्ध नहीं किया जा आशीर्वाद देंगे। 'जल में लगी आग' चरितार्थ हुई। व्रती | सकता जो धर्म और धर्म की मूर्ति की विकृतियों का पोषक अवतियों की शरण माँगने लगे। हो। वे पक्षातीत थे, सत्यनिष्ठ थे। इसीरूप में आचार्यश्री को उक्त समाचार से यह भी स्पष्ट होता है कि मिथ्यात्वी कुदेवों के साथ ही क्षेत्रफल-पद्मावती की उपासना का पूज्य आचार्यश्री को जैसा जाना, पढ़ा उसी अनुरूप विरोध भी पूज्य आचार्यश्री ने किया था और विवेकीजनों ने | | ससंदर्भ लिखा है। कहीं अन्यथा निष्कर्ष ग्रहण किये हों तो उसकी उपासना नहीं करने की प्रतिज्ञा की थी। विज्ञजन मार्गदर्शन करें. सधार हेत तत्पर हैं। पज्यश्री के साथ विजातीय विवाह के संबंध में दृष्टिकोण वर्षों सम्पर्क में रहने वाले भव्यजन अभी भी विद्यमान हैं, श्री पं. सुमेरचन्द्र जी दिवाकर जी ने आचार्यश्री से | जिनके मार्गदर्शन से गृहीत मिथ्यात्व पोषक प्रवृत्तियों से प्रश्न किया क्या यह सच है कि आप आहार के पूर्व गृहस्थ | छुटकारा मिल सकता है। जिनेन्द्र देव के शासन में साधुत्व से प्रतिज्ञा कराते हैं कि विजातीय विवाह आगम विरुद्ध है? | (वीतरागता) ही पूज्य है। णमोलोए सव्वसाहूणं।। ऐसी जो प्रतिज्ञा नहीं लेता वहाँ आप आहार नहीं लेते? इसके | बी-३६९ ओ पी.एम. अमलाई जिला-शहडोल (म.प्र.)४८४११७ अप्रैल 2007 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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