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दिगम्बर - परम्परा को बनाये रखने का दायित्व किस पर ?
पं. वसन्तकुमार जैन शास्त्री 'जिनभाषित' अंक दिसम्बर 2006 के सम्पादकीय | मुनि मर्यादा के प्रति सावधान रहते देखा है। मैंने अनेक बार में एक 'दिगम्बर जैन परम्परा को मिटाने की सलाह' लेख देखा है कि श्रावकजन उन आचार्यों के सामने दुनियादारी पढ़ने को मिला। ऐसे लेख और चिन्तन की परम आवश्यकता की बाते करते हुए डरते थे । उन आचार्यों को न तो किसी भी है। आज के परिवेश में सम्पूर्ण लेख में दिगम्बरत्व के प्रति प्रकार का अपने नाम का कोई मठ या भवन बनाने का आदर-सम्मान और वैराग्यजनक भावनाओं का सारगर्भित व्यामोह था और ना लिप्सा । वे और उनके शिष्य बराबर वर्णन किया गया है, जिससे दिगम्बरत्व की रक्षा एवं अपनी साधना में रत रहा करते थे । किन्तु आज मुझे मुनि प्रमाणिकता प्रकट होती है। बहुत-बहुत धन्यवाद है सम्पादक विमर्शसागर महाराज की 'सोचता हूँ कभी-कभी' संकलन महोदय को । जो व्यक्ति दिगम्बरत्व के प्रति उदासीन हैं, की वे पंक्तियाँ रह रह कर व्यथित करती रहती हैंहतोत्साही हैं, वे वैराग्य को न परखकर आसक्ति को मन में सोचता हूँ कभी-कभी आजकल - कतिपय साधु बिठाये हुए हैं। आगमानुसार दिगम्बर जैन सन्त पंचम काल पंथवाद की पतंगें उड़ा रहे हैं। के अन्त तक रहेंगे।
काटने एक दूसरे की पतंग पेच भी लड़ा रहे हैं। श्रावक के हाथ पकड़ा डोर-गिर्रा निरन्तर ढील बढ़ा रहे हैं। तो कुछ श्रावक, दूर से ही पंथवाद की पतंगे और पेंचों की उमंगें देख ताली बजा-बजा पंथाग्रही साधुओं का उत्साह बढ़ा रहे हैं।
मेरा यह लेख पढ़कर आप मुझे उलाहना दे सकते हैं कि आपको क्या अधिकार है दिगम्बर सन्तों के प्रति कुछ भी कहने का ?
लेख के अंत में सम्पादक महोदय ने 'शिथिलाचार से दिगम्बरत्व को खतरा' शीर्षक से यह भी अहसास कराया है कि आज की कतिपय बुद्धिजीवी मानस विचारधाराएँ आखिर दिगम्बर जैन परम्परा में क्यों उभर रही हैं? तो आखिर दिगम्बर जैन परम्परा को बनाये रखने का दायित्व किस पर आता है ? श्रावक पर या श्रमण पर ?
यद्यपि श्रमण (सन्तजनों) के प्रति हम श्रावकों को कुछ भी सुधार - सुझाव देने का अधिकार नहीं के बराबर है, क्योंकि सन्तजन स्वयं सोलह संस्कारों से संस्कारित होकर नियमबद्ध हैं । उन्हें ही उचित अनुचित का ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि समाज ( श्रमण एवं श्रावकों) ने उन्हें पंच परमेष्ठी की कतार में खड़ा किया है और राग-विराग की मर्यादा बनाये रखने की उन्होंने शपथ ग्रहण की है, तो जिस ने उन्हें दीक्षा दी है, वे ही अपना उत्तरदायित्व निभावें । गुरु उन्हें पूर्ण अधिकार हैं कि वे स्वयं के शिष्य यदि मर्यादा का बार-बार उलंघन करते हैं, तो उनका पिच्छी कमण्डलु छीन लें ।
आज सन्तजनों (मुनि-आर्यिका - ऐलक - क्षुल्लक) में जो शिथिलाचार पनप रहा है, उसका मूल कारण उनको दीक्षा देने वाले आचार्य श्री का अपने शिष्य के प्रति उदासीन हो जाना है ।
मेरी आयु 75 वर्ष की हो चुकी है और मैंने पूर्वाचार्यवर श्री 108 वीरसागरजी महाराज, आचार्यवर शिवसागरजी महाराज, आचार्यवर धर्मसागरजी महाराज के विशाल संघों का सान्निध्य प्राप्त किया है और उन संघों पर आचार्य श्री का कठोर अनुशासन भी देखा है। उनके शिष्यों को सदैव अपनी 12 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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आपका उलाहना । लेकिन मैं
बिल्कुल ठीक दिगम्बर सन्तों का परमभक्त अपने आपकों मानता हूँ। उन्हें परमेष्ठी पद पर आरुढ़ हुआ देखकर उनकी पूजा, भक्ति करता हूँ। तब कोई मेरे आराध्य के प्रति शंका की अँगुली उठाता और मैं भी उस शंका में सच का अहसास करता हूँ, तो मेरी अन्तर आत्मा रो उठती है कि त्यागी होकर भी अत्यन्त रागी क्यों बनता जा रहा है मेरा आराध्य सन्त ? किसकी नजर लग गई है इनको ? कौन इनको भ्रष्ट करने के पीछे लगा हुआ है। ऐसे में, मैं उन्हें ही, मेरे आराध्य सन्त जनों को ही तो कहूँगा कि आप सम्हलकर रहिए। आप त्यागी हैं। बाहर की वस्तुओं के त्याग का नाम ही त्याग नहीं है, अपितु अन्तरंग के क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, मोह के त्याग का नाम ही असल में त्याग है ।
तो मेरी अन्तर्व्यथा किसे कहूँ और दूसरा मेरी इस व्यथा को सुनेगा भी क्यों? मैं तो परम पूज्य दिगम्बराचार्यों से ही निवेदन कर सकता हूँ कि अपने शिष्यों में यदि शिथिलाचार नजर में आये तो, नरम मत होइए कठोर अनुशासन को काम में लीजिए । वह शिष्य चाहे मुनि हो या आर्यिका, क्षुल्लक हो या क्षुल्लिका, उसे मर्यादा में रखने का अधिकार आपको ही
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