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है।
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है । यहाँ पर के अवलम्बन से अभिप्राय | है, फलोदय के लिये तो वह परम्परा से कारण है। यही है देव शास्त्र गुरु के आलम्बन से और अपने ही अवलम्बन | स्थिति बीज की तरह व्यवहार रत्नत्रय की है। वह साक्षात् से मतलब है निर्विकल्पसमाधिरूप अवस्था, जहाँ पर का कारण निश्चय रत्नत्रय का है और निश्चत रत्नत्रय साक्षात् अवलम्बन नहीं रहता। जिसको छहढालाकार ने 'निज माँहि | मोक्ष (फलोदय) का है। व्यवहार रत्नत्रय निश्चय रत्नत्रयरूप निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो' कह कर स्पष्ट | परिणत होता है और निश्चय रत्नत्रय मोक्षरूप परिणत होता किया है।
आचार्य समन्तभद्र ने 'ज्ञान चारित्र की उत्पत्ति, वास्तव में तो उपादान कारण ही कार्यरूप परिणत स्थिति, वृद्धि और फलोदय बिना सम्यक्त्व के उसी तरह | होता है। जिस तरह स्थाल, कोष, कुशूल, घट आदि पर्याय नहीं होते जिस तरह बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, | के लिये मिट्टी उपादान है, उसी तरह व्यवहार निश्चय स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होते' यह जो दृष्टान्त दिया | रत्नत्रय आदि तो आत्मा की पर्यायें हैं, उन सबमें एक आत्मा है वह बीज को फलोदय का उपादान मानकर नहीं दिया | ही उपादान कारण है, जो प्रत्येक पर्यायरूप परिणत होती है, किन्तु फलोदय का मूल कारण मानकर दिया है। यदि | है। मूल कारण कार्यरूप परिणत हो जाता है, तब क्या यह इस तरह आचार्य समन्तभद्र के अनुसार बीज की माना जाय कि बीज फलरूप परिणत हुआ है? यदि ऐसा | जो स्थिति है, वही स्थिति व्यवहार रत्नत्रय की है। और हो तो फल से पहले की पर्याय जो फूल है उसको क्या | मोक्ष के लिये व्यवहार रत्नत्रय मूल कारण है। उससे इनकार कहा जायेगा? यदि फूल साक्षात् कारण है, तो कहना चाहिए | नहीं किया जा सकता। कि साक्षात् कारण ही वहाँ कार्यरूप परिणत हुआ है न
'पं. लालबहादुर शास्त्री अभिनंदन ग्रंथ' कि मूल कारण बीज। बीज तो साक्षात् कारण अंकुर का |
से साभार
सहनशक्ति की महिमा महात्मा सुकरात बहुत बड़े विद्वान् और दार्शनिक | डाल दिया। थे। सारा यूनान उनका आदर करता था। परन्तु उनकी तब सुकरात हँसकर बोले- "देवी, आज तो पुरानी धर्म-पत्नी थी क्रोध की साक्षात् मूर्ति। हर समय लड़ती | कहावत अशुद्ध हो गई। कहावत है कि गरजनेवाले बरसते वह । मीठा बोलना उसने सीखा नहीं था। प्रतीत होता था- नहीं। आज देखा कि जो गरजते हैं वे बरसते भी हैं।" चीनी उसने कम खाई,सदा कुनेन ही खाती रही। सुकरात सुकरात हँसते रहे, परन्तु उनका एक विद्यार्थी क्रोध घर पर मौन बैठते, तो वह चिल्लाना आरम्भ कर देती | में आ गया। उस विद्यार्थी ने चिल्लाकर कहा-"यह स्त्री तो "हर समय चुप ही बैठे रहते हैं!" वे कोई पुस्तक पढ़ते | चुडैल है, आपके योग्य नहीं।" । तो चिल्ला उठती "आग लगे इन पुस्तकों को! इन्हीं के सुकरात बोले- "नहीं, यह मेरे ही योग्य है। यह साथ विवाह कर लेना था, मेरे साथ क्यों किया?" ठोकर लगा-लगाकर देखती रहती है कि सुकरात कच्चा है
एक दिन वे आये तो पत्नी ने इसी प्रकार बकना- या पक्का। इसके बार-बार ठोकर लगाने से मुझे पता तो झकना आरम्भ किया। सुकरात के कुछ विद्यार्थी और लगता रहता है कि मेरे अन्दर सहनशक्ति है या नहीं।" भक्त भी उनके साथ थे। उन्होंने इस बात का बहुत बुरा पत्नी ने यह शब्द सुने तो झट उनके चरणों में गिर मनाया, परन्तु सुकरात मौन बैठे रहे। पत्नी ने इन्हें मौन पड़ी। रोती हुई बोली- "आप तो देवता हैं। मैंने आपको देखा, तो उसके क्रोध का पारा और भी चढ़ गया। वह पहचाना नहीं।" और भी ऊँची आवाज में बोलने लगी। सुकरात फिर यह है तप की महिमा! तप और सहनशीलता से चुपचाप बैठे रहे। पत्नी ने तब क्रोध से पागल होकर | अन्ततोगत्वा मनुष्य को विजय प्राप्त होती है। बुरे व्यक्ति मकान के बाहर पड़ा हुआ गन्दा कीचड़ एक बर्तन में | भी अपना स्वभाव बदल देते हैं। भरा, शीघ्रता से आकर सारा कीचड़ सुकरात के सिर पर
'बोध कथा' से साभार
8 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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