Book Title: Jinabhashita 2007 04 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ के सान्निध्य में स्वाध्याय एवं पठन-पाठन में अपना समय देते थे। मुनि श्री विद्यासागर जी को विशेषत: हिंदी व संस्कृत का अध्ययन पंडित जी ने कराया था । समय बीतने के साथ ही पंडित जी के हृदय में वैराग्य की वृद्धि होती गई और तीर्थक्षेत्रों की वंदना कर लेने के बाद एक दिन वाहन का त्याग कर दिया, जो उनके राग भाव के शिथिल होने का सूचक था। उक्त नियम के फलस्वरूप पंडित जी अपने दोनों पुत्रों के विवाह के अवसर पर बारात में कुचामन सिटी व नीमच नहीं गए। स्वयं के पुत्रों के विवाह में, बारात में नहीं जाना पंडित जी के मोह व राग के कम होने का एक अनुपम उदाहरण है पंडित जी के हृदय में उत्पन्न वैराग्य के अंकुर धीरेधीरे पुष्ट होते गए । स्वामी समंतभद्र के शब्दों में वे घर में रहते हुए भी 'संसार शरीर भोग निर्विण्ण' थे। उनकी जीवनचर्या पर पं. दौलतराम जी का कथन 'गेहीपै गृह में न रचे ज्यों, जल तैं भिन्न कमल है' पूरी तरह चरितार्थ होता था । I पंडित जी 31 जुलाई 1974 को 58 वर्ष की आयु में के. डी. जैन विद्यालय की सेवा से निवृत्त हो गए। अपने कार्यकाल में पंडित जी एक उत्कृष्ट आदर्श अध्यापक रहे। सह-अध्यापकों एवं छात्रों से उनका अत्यंत सौहार्दपूर्ण एवं वात्सल्यपूर्ण व्यवहार रहा । उनकी सेवानिवृत्ति के समय मैं विद्यालय का मंत्री था। मैंने पंडित जी से निवेदन किया कि अध्यापकीय पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे विद्यालय के छात्रावास के अधीक्षक का पद सँभाल लेवें, जिसके लिए हम उन्हें समुचित वेतन प्रदान करेंगे। मेरे निवेदन का जो पंडित जी ने उत्तर दिया उसको सुनकर मैं एक ओर आश्चर्यचकित हुआ और दूसरी ओर उनकी उत्कृष्ट निःस्पृहवृत्ति के प्रति मेरा हृदय श्रद्धा से भर गया । वे बोले - "लुहाड़िया जी आप समझदार होकर भी मुझे सेवानिवृत्ति के बाद भी वेतन के लोभ में घर में ही फँसाये रखना चाहते हो। मैंने संकल्प किया हुआ है कि विद्यालय से सेवानिवृत्ति के पश्चात् मैं जीवन का शेष समय गृहत्यागकर संयम की साधना में व्यतीत करूँगा। प्रायः सेवानिवृत्ति के पश्चात् व्यक्ति कमाई के साधन की खोज में रहता है । किन्तु दृढ़ संकल्प के धनी ज्ञान और वैराग्य की ज्योति हृदय में जगाए पंडित जी ने स्वयं सामने आए कमाई के साधन को ठुकरा दिया और सेवानिवृत्ति के तुरंत पश्चात् कुछ समय में ही सभी गार्हस्थिक संकल्प-विकल्पों से मुक्त होकर सदा के लिए Jain Education International घर-परिवार छोड़कर आचार्यकल्प श्रुतसागर जी महाराज के संघ में प्रवेश कर लिया। संघ में कुछ दिनों तक ब्रह्मचारी भेष में साधना का अभ्यास कर दिनांक 8 दिसम्बर 1974 को उस नर रत्न ने क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। किन्तु कोपीन और खण्ड वस्त्र भी उस मुक्ति पथिक को भार लग रहे थे और केवल 6 माह के अल्प समय के पश्चात् ही उन्होंने दिनांक 12 जून 1975 को सम्पूर्ण परिग्रह का त्यागकर महान् मुनि पद अंगीकार कर लिया और परमपूज्य मुनिराज समतासागर जी बन गए। नाम के अनुरूप समतापरिणामों के धनी पू. समतासागर जी महाराज ने साधुकाल में निर्दोष मुनिचर्या का पालन किया । मुनिराज समतासागर जी महाराज आचार्य समंतभद्र द्वारा स्थापित स्वरूप के अनुसार ज्ञान ध्यान व तप में सदैव लीन रहते थे। स्वयं के स्वाध्याय के साथ-साथ संघ के साधुओं एवं ब्रह्मचारियों को भी पढ़ाते थे । वे तीन वर्ष, साढ़े पाँच माह के अल्प साधुकाल की साधना के बाद केवल 62 वर्ष की आयु में ही समाधिपूर्वक इस मनुष्य पर्याय को छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। उनका देहांत अत्यंत चमत्कार पूर्ण रहा। पू. समतासागर जी महाराज अन्य तीन मुनिराज पू. अजितसागर जी, पू. गुणसागर जी एवं पू. वर्द्धमानसागर जी के साथ कालू से नीमाच बिहार में थे । पू. मुनिश्री मार्ग में संघस्थ ब्रह्मचारी को शिक्षण देते हुए चल रहे थे कि एकाएक कटे हुए वृक्ष के समान गिर पड़े और अल्प समय में ही समाधिलीन हो गए। स्पष्टतः आगमचर्चा करते हुए उनका उपयोग शुभोपयोग में था एवं गिरने के बाद अवश्य ही उन्होंने शुद्धोपयोग को प्राप्त किया होगा । प्रत्यक्षत: किसी प्रकार की शारीरिक पीड़ा एवं मानसिक संताप का कोई कारण वहाँ प्रकट नहीं था और मुखमुद्रा पर अभिव्यक्त सौम्यता एवं शांति उनके अंदर के शुद्धोपयोग को द्योतित कर रही थी । ऐसे उत्कृष्ट गृहस्थ- जीवन एवं आदर्श साधु-जीवन जीकर उस महान् साधक ने मानों एक प्रयोगात्मक श्रावकाचार एवं यत्याचार की रचना श्रद्धालुओं के पठन एवं आचरण के लिए कर दी। उन्होंने अपने मनुष्यभव को सफल बना हुए हम सबको प्रेरणादायी मार्गदर्शन प्रदान किया। ऐसे परमपूज्य समता सागर जी महाराज के चरणों में बारंबार नमोऽस्तु । For Private & Personal Use Only जयपुर रोड, मदनगंज - किशनगढ़ ( राजस्थान ) 'अप्रैल 2007 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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