Book Title: Jinabhashita 2007 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ 2 सम्पादकीय आर्यिकाओं की नवधा भक्ति जैन गजट में स्वाध्यायशील विद्वान् श्री कपूरचंद जी पाटनी के पठनीय उपयोगी संपादकीय लेख प्रकाशित होते रहते हैं । वे प्रायः साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित होकर आगम प्रमाणों से पोषित रहते हैं। किसी भी पक्षविशेष पर कटाक्ष, व्यंग्य अथवा निदात्मक शब्दों का प्रयोग भी उनके लेखों में नहीं पाया जाता। इस प्रकार एक निष्पक्ष पत्रकार के व्यक्तित्व का दर्शन उनके लेखों में होता है। यद्यपि वैचारिक मतभेद असंभव नहीं है । किन्तु उसके आधार पर मनभेद निर्माण कर निंदात्मक, व्यंग्यात्मक, आलोचना करना प्रकरण के निर्णय एवं पारस्परिक सौहार्द पूर्ण संबंधों में बाधक बन जाते हैं। प्रायः पक्षव्यामोह के अंधकार में हम अनेकांतात्मक सत्य को नहीं देख पाते और निरपेक्ष तर्क का सहारा लेकर अवांछित विवादों में उलझ जाते हैं। मेरे मन में सदैव यह विचार आता है कि क्या हम विवादास्पद विषयों पर आक्षेपात्मक, व्यंगात्मक शब्दों का प्रयोग किए बिना वीतरागभाव से लेखप्रतिलेख के माध्यम से चर्चा करने के अभ्यासी नहीं बन सकते हैं? प्राय: पक्षपात का भूत हमें दुराग्रही बना देता है और हम अपने पक्ष के अड़ियल समर्थक होते हुए दूसरे पक्ष का निषेध करने में शालीनता की सीमाएँ तोड़ देते हैं। दिनांक २० जुलाई, २००६ के जैन जगट में 'आर्यिकाओं की नवधाभक्ति आगमसम्मत है' संपादकीय लेख प्रकाशित हुआ है। मैंने ध्यान से पूरा लेख आगम प्रमाण देखने के लिए पढ़ा। पहला प्रमाण मूलाचार की गाथा १८७ का दिया गया है। किन्तु इस गाथा में तो आर्यिकाओं के द्वारा किए जानेवाले समाचार के बारे में कहा है कि वह पूर्व के कहे अनुसार यथायोग्य करना चाहिए। इस गाथा में आर्यिकाओं की नवधा भक्ति का विधान नहीं किया गया है | गाथा में प्रयुक्त ' यथा - योग्य' शब्द महत्त्वपूर्ण है, जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि आर्यिकाओं की शारीरिक संरचना एवं सीमित आत्मशक्ति के कारण वे मुनियों के समान समाचार करने में समर्थ नहीं हैं। इसलिए उन्हें यथायोग्य समाचार विधि आचरित करनी चाहिए । अतः मूलाचार के इस प्रमाण से तो आर्यिकाओं के प्रति पूर्णतः मुनियों के समान नवधाभक्ति किया जाना सिद्ध नहीं होता। बल्कि मूलाचार गाथा ४८२- ४८३ में कहा गया है कि विधि अर्थात् नवधाभक्ति से दिया गया आहार साधु अर्थात् मुनि महाराज ग्रहण करें, जिससे यह ध्वनित होता है कि मुनियों को नवधाभक्ति-पूर्वक आहार दिया जाना चाहिए। कथानक ग्रंथों में आर्यिकाओं की पूजा किए जाने का जो वर्णन मिलता है, उससे अष्टद्रव्य से पूजा किए जाने की बात सिद्ध नहीं होती। नमस्कार, स्तुति, वंदना आदि भी पूजा के ही रूप माने जाते हैं। अष्ट द्रव्य से पूजा के पात्र नव देवता ही होते हैं । स्पष्ट है कि नव देवताओं में आर्यिकाओं का ग्रहण नहीं होता है। इस कारण आर्यिकाएँ अष्ट द्रव्य से पूजा किए जाने की पात्र नहीं ठहरती हैं। अपनी पर्याय से अक्षयपद प्राप्ति, भवातापनाश, अष्टकर्मदहन, मोक्षफल प्राप्ति, अनर्घ्य पद प्राप्ति आदि की योग्यता नहीं रखनेवाली आर्यिकाओं से पूजक उक्त फलप्राप्ति की प्रार्थनाओंवाली पूजा कैसे करेगा? यह भी उल्लेखनीय है कि उपलब्ध प्राचीन प्राकृत, संस्कृत अथवा हिन्दी पूजासंग्रहों में पचपरमेष्ठी - सहित नव देवताओं की ही पूजायें पायी जाती हैं। कहीं भी किसी आर्यिका की पूजा देखने में नहीं आयी है। पाटनी जी का यह कथन कि मुनि और आर्यिकाओं में मात्र उत्तर गुणों में अंतर होता है, मूल गुणों में नहीं, प्रत्यक्ष और आगम दोनों के विपरीत है। आर्यिकाओं के अहिंसा महाव्रत, अपरिग्रह महाव्रत, नग्नत्व, स्थिति- भोजन, अस्नान आदि मूल गुण नहीं होते हैं। फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि आर्यिकाओं के मुनियों फरवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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