Book Title: Jinabhashita 2007 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ प्रश्न चिह्नित किया है। उनकी दृष्टि में ५० करोड़ की लागत का मन्दिर भव्य नहीं हो सकता उसके लिए अरबों रु. की धनराशि चाहिये और यदि कोई भामाशाह कुण्डलपुर ट्रस्ट को मिल जाता तो वह योजना भी अरबों की हो जाती । लेखक के भाई श्री रमेश जी ने भी फोन पर चर्चा करते समय मुझसे कहा कि प्रस्तावित मन्दिर अक्षरधाम जैसा भव्य नहीं है जिसका समर्थन किया जाये। उनका यह सुझाव विचारणीय है । भव्यता आकाश जैसी असीम है किन्तु उसका सीधा संबंध साधनों की सुलभता से होता है। कितना अच्छा होता यदि लेखकगण पुरातत्व विभाग के स्थान पर बड़े बाबा के पक्षधर बन कर यथासमय कुण्डलपुर ट्रस्ट का मार्गदर्शन करते और वे अपनी सामर्थ्य के अनुरूप मन्दिरजी को भव्यता प्रदान करते। मेरी दृष्टि में तो बड़े बाबा की भव्यता से मन्दिरजी की भव्यता का निर्धारण होगा। श्री नीरज जी जैन के अनुसार 'बड़े बाबा का मन्दिर प्राचीन स्थापत्य का अधिक महत्वपूर्ण प्रासाद नहीं है;' फिर भी वह लेखक को भव्य जैसा लगता था। जीर्णता का दृष्टिकोण अलग विषय है। रही बात छोटे द्वार और बड़े श्री जी की इस संबंध में हमें अपने पूर्वजों की सोच की ओर देखना होगा। बुन्देलखण्ड में प्रायः ऐसे ही मन्दिर मिलेंगे। सुरक्षा और श्री जी के सम्मान की दृष्टि से द्वार छोटा ही बनाया जाता रहा । चन्देरी स्थिति चौबीस जिनालय का उदाहरण पर्याप्त है। इस दूरदर्शी सोच को श्री जी / बड़े बाबा का अपमान कैसे कहा जा सकता है? पूर्व स्थान / मन्दिर भी ऐसा ही था छोटे द्वार का । उस समय भी उनकी निगरानी में वह मन्दिर बना होगा । बुद्धि चातुर्य्य का प्रयोग अपने आराध्य इष्ट को अपमानित करने में नहीं करें तो अच्छा होगा। मन की मलिनता एवं संकीर्णता से देवाधिदेव को दूर रखने से ही संस्कृति विकृत होने से बचेगी। ८. स्थानांतरण हेतु मूर्ति को सांखलों से बाँधना लेखक ने मूर्ति के स्थानांतरण के समय बड़े बाबा को सांखलों में बाँध कर नये मन्दिरजी में ले जाने का व्यंग्यात्मक उल्लेख किया है। मेरे मन में यह सहज विचार आया कि जब आइरन फ्रेम के नीचे बड़े बाबा नहीं रह सकते तब लोहे की सांखलों से उन्हें कैसे बाँधा जा सकता है ? जानकारी लेने पर मालूम हुआ कि सांखलों से बाँधकर ले जाने की कल्पना लेखक की अपनी है यथार्थ में बड़े बाबा को फाइवर के मजबूत पट्टों के आश्रय से स्थानांतरित किया गया था। नीति और आगम की बात करने वालों को विरोध करने हेतु । Jain Education International आधारहीन कथन लिख कर समाज को गुमराह नहीं करना चाहिये। ९. विभीषण कौन ? लेखक ने सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के संदर्भ में विभीषण की खोज का आह्वान किया जिससे जैन धर्म का अस्तित्व और अस्मिता बची रहे। उनके इस नैतिक सोच के लिये साधुवाद। आश्चर्य यह है कि जो लेखक भय के . कारण छद्म नाम से अपनी बात कहकर उसके औचित्य की सिद्धि हेतु बड़े-बड़े आचार्यों को वैसा कृत्य करने का दम भरता है उसे स्वयं यह निर्णय करना चाहिये कि वह किस भावभूमि पर खड़ा है ? उसके स्वरूप का निर्णय करने वह दूसरों को क्यों आमंत्रित कर रहा ? विचारणीय है । श्री लुहाड़िया जी भी यदि किसी भय से पीड़ित हों, जैसी लेखक की कल्पना है, तो मेरा उनसे अनुरोध है कि वे लोकहित में उसको प्रकट करें या लेखक को समाधान देने की कृपा करें। श्रमण संस्कृति की रक्षा, प्राचीन धरोहर की सुरक्षा अपने आराध्य देव, शास्त्र गुरू के सम्मान का भार प्रत्येक जैन नामधारी व्यक्ति का है। धार्मिक मर्यादाओं के पालन से ही संस्कृति सुरक्षित रहेगी। निजी खुले व्यवहार से विनाश ही होगा । बुन्देलखण्ड जैन कला और संस्कृति का केन्द्र है । पुरातत्त्व विभाग ने कानूनों के संदर्भ में उन्हें संरक्षित घोषित किया किन्तु सुरक्षा के अभाव में कलाकृतियाँ चोरी हो रही है, सिर काटे जा रहे हैं। दुखद है कि शाब्दिक वाणी विलास करने वाले बुन्देलखण्ड में जाकर यथार्थ को नहीं समझना चाहते हैं। उनका गर्भित उद्देश्य धन बल और संचार संसाधनों के बल से समाज में पंथवाद को हवा देना प्रतीत हो रहा है। संयोग से विद्यमान प्रकरण का लाभ उठाते हुए पुरातत्त्व विभाग से पूछा जा सकता था कि कितने जैन स्थल संरक्षित घोषित किये और वर्तमान में उनकी क्या स्थिति है? क्या घोषित कर देने मात्र से संरक्षित हो जावेंगे या उसके लिए कुछ करना पड़ता है। यह अवसर हम चूक गये और अपनी शक्ति का उपयोग विघटन की ओर करने लगे। इस प्रकरण के रहस्य जब उजागर होंगे तब इतिहासकार यही कहेंगे कि बाड़ ही खेत को खा गयी। समय की प्रतीक्षा करें। माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय से वस्तु स्थिति स्पष्ट हो जावेगी और जो वर्तमान में सर्वज्ञता का चोला ओढ़ कर समाज को भ्रमित कर रहे हैं उसका स्वरूप भी उजागर हो जावेगा । संस्थागत अर्थ सहयोग से लोकमत में व्यक्ति की धारणाएँ फरवरी 2007 जिनभाषित 19 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36