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१
भरताष्टकम् (उपजाति छन्द)
आकुञ्चितस्निग्धभुजङ्गकेशं, संपाटयन्नाशु निसर्गभेषम् । संप्राप्तकाले समवापबोधं, नाभेयजं तं भरतं यजेऽहम् ॥ अनुवाद - नाभेय (आदिनाथ) के पुत्र भरत भगवान् की मैं पूजा करता हूँ जिन्होंने घुंघराले, चिकने और सर्पसदृश काले-काले बालों को उखाड़ते हुए शीघ्र ही निसर्ग (यथाजात) भेष की प्राप्ति के समय केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था ।
२
आद्यस्य तीर्थाधिपतेर्युगादौ, वाद्योहिसूनुः पृथुसानुरद्रौ । आद्यश्च चक्री खलु चक्रभृत्सु, नाभेयजं तं प्रणमामि सत्सु ॥ अनुवाद - युग के आदि में आदितीर्थंकर के जो आदिपुत्र थे, जो पर्वत की विशाल चोटी के समान थे तथा होने वाले सभी चक्रवर्तियों में जो स्पष्ट ही प्रथम चक्री थे, उन नाभेय से उत्पन्न भरत भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ ।
३
षट्खण्डभूमेर्विजयी किलाले! निखातनामा वृषभाख्यशैले । यन्नामतो भारतवर्ष कीर्तिर्नाभेयजातस्य जयेत्सुकीर्तिः ॥
अनुवाद - अहो सखे ! जो षट्खण्डभूमि के विजेता थे, जिनका नाम वृषभ नामके पर्वत पर उकेरा गया था और जिनके नाम से ही इस भारतवर्ष की कीर्ति है, ऐसे नाभेय के पुत्र ( भरतदेव ) की शुभ कीर्ति सदैव जयवन्त रहे ।
४
संस्थापितं येन तुरीयवर्णं, वर्णेन रूढिं लभते सुवर्णम् । अष्टापदेऽकारि च चैत्यगेहं नाभेयजं तं भरतं यजेऽहम् ॥ अनुवाद - जिन्होंने चतुर्थवर्ण (ब्राह्मण वर्ण) की स्थापना की थी, जिनके स्वर्ण समान शरीर के वर्ण से ही स्वर्णसुवर्ण इस रूढ़ि को प्राप्त होता है तथा जिन्होंने अष्टपद पर चैत्यगृहों का निर्माण किया था, उन नाभेय से उत्पन्न भरत भगवान् की मैं पूजा करता हूँ ।
५
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चक्रच्छलेनैव जयस्यलक्ष्मीर्ययौ पुरस्तात् क्रमयोर्विधेश्च । ललाटपट्टे तु बबन्ध पट्टं, बुद्धेः प्रवन्दे भरतक्रमे च ॥ अनुवाद- चक्र के छल से मानो विजय की लक्ष्मी ही आगे चली थी, भाग्य की लक्ष्मी चरणों के आगे-आगे चली थी और बुद्धि की लक्ष्मी ने तो ललाट-पट्ट पर पट्ट ही बांध दिया था, ऐसे भरतदेव के चरणों में मेरी प्रकृष्ट वन्दना है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
६
कैलासशैलं पुरुपादपूतं, शुभ्रं विशालं वृषमेव रूढम् । तमारूरूक्षुर्निकटं मुमुक्षुर्नाभेयजं तं परिणौमि मंक्षु ॥ अनुवाद- जो कैलासपर्वत भगवान् आदिनाथ के चरणों से पवित्र हुआ था, जो शुभ्र था, विशाल था तथा जो उच्च बैल के समान ख्यात था, उस पर वह निकट मुमुक्षु शीघ्र ही चढ़ने की इच्छा करते थे अर्थात् वह बार-बार भगवान् के दर्शन को जाते थे, ऐसे नाभेय पुत्र भरतदेव को मेरा नमस्कार हो ।
७
संसारवार्धौ विनिमग्नताया, हेतुर्विदु वैभवलुब्धताया । तथापि यः पङ्कजवद्व्यलिप्तः, तं संस्तुमो वो गृहसंस्थमुक्तः ॥ अनुवाद - जो वैभव की लुब्धता संसार सागर में डूबने का हेतु कही गयी है उसके होते हुए भी जो कमल के समान निर्लिप्त थे और जो सभी के लिये गृह में रहते हुए भी मुक्त थे, उन भरतदेव की मैं स्तुति करता हूँ ।
८
द्रष्टाऽऽर्कचैत्यस्य यथेष्टदाता, शारीरदण्डस्य च यो विधाता । मेरोरिवाभाज्जिनराट्सभायां, शुद्धयाऽर्चयेऽहं भरतं पृथिव्याम्॥
अनुवाद - जिन्होंने अपने महल से सूर्य में स्थितचैत्य के दर्शन किये, जो 'हा, माधिक के बाद कर्मभूमि में प्रचलित शारीरिक दण्ड के विधाता थे, जो जिनेन्द्रदेव की सभा में पृथ्वी पर मेरू के समान शोभित हुए थे, उन भरतदेव की मैं शुद्धिपूर्वक अर्चना करता हूँ ।
९
(मालिनी छन्द)
इति सुखयति कामं भुक्तिमुक्तिप्रदानं तव गुणगणगानं भव्यजीवैकयानम् । सततनवसुभावैर्नन्नमीमीष्टदं वै विधिहतवरमल्लं भारतेशं प्रणम्यम् ॥
अनुवाद- इसप्रकार आपके गुण-समूह का गान अत्यधिक सुख देनेवाला है, अभ्युदय सुख और मुक्ति का देनेवाला है तथा भव्य जीवों के लिये संसार से पार जाने के लिये यान के समान है । इष्ट वस्तु को देनेवाले, कर्म को नाश करने में श्रेष्ठ मल्ल तथा प्रणाम के योग्य भरतदेव को मैं नित नवीन उत्कृष्ट भावों के साथ निश्चय से बार-बार नमस्कार करता हूँ।
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फरवरी 2007 जिनभाषित 23
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