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आपके पत्र
'जिनभाषित' का दिसम्बर २००६ का अंक महत्त्वपूर्ण । जिसमें आपने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के विचारों से (कि एवं संग्रहणीय है। सम्पादकीय अतिखोजपूर्ण एवं न केवल दिगम्बरजैन मुनियों को नग्नावस्था में शहर में प्रवेश नहीं सामयिक, किन्तु एक ऐतिहासिक दस्तावेज | 'दिगम्बर करना चाहिए) सहमति दर्शानेवाले आधुनिक विद्वान् डॉ० परम्परा को मिटाने की सलाह' देनेवालों की आँखों और अनंगप्रद्युम्न कुमार, श्री जमनालाल जैन, सुश्री लीना आस्था पर खोट निर्धारित की है। गाँधी जी एवं चम्पतराय विनायकिया तथा डॉ. अनिलकुमार जैन को सतर्क विवेचना जी का पत्रव्यवहार अपना खास महत्त्व रखता है। सेन्ट पाल द्वारा 'नग्नत्व निर्विकारत्व का प्रतीक' सिद्धकर पुनः विचार की 'कुछ चीजें कानून सम्मत होते हुए भी उचित नहीं होतीं ' करने को बाध्य किया तथा 'शोधादर्श' के सम्पादक को यह सारपूर्ण बात आज जनतंत्र राज्य पर सही उतरती है । सोचने एवं अपनी भूल सुधारने हेतु मजबूर किया। उन्होंने एक ही गणराज्य में परस्परविरोधी कानून बने हैं और बन कैसे ' शोधादर्श' (मार्च ०५) में महात्मा गाँधी के 'नवजीवन' रहे हैं। हमारे भाई श्री अजित टोंग्या ने अपनी स्वयं प्रकाशित (०५/१९३१) में प्रकाशित लेख को (इस टिप्पणी के साथ काली पुस्तक में कानून को 'राजाज्ञा' कहा है। आज राजा कि उनके विचार वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामयिक और समीचीन कहाँ है? जनता के राज में (राजा के राज में नहीं) सत्तासीन प्रतीत होते हैं ।) छाप दिया !! अहो ! हन्त महाश्चर्यम् ! "कालः जन-प्रतिनिधि राज्य के कानून अपने ध्येय, धारणा तथा कलिर्वाकलुषाशयो वा " (युक्त्युनशासन, (५) । मान्यता के अनुसार बनाते हैं। राजाज्ञा तो अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि धर्मों पर आधारित होती थी। अब न राजा है और न राजाज्ञा, अब कानून है। यही नहीं, एक ही गणतंत्र में भूगोल की एवं समय की सीमा में कानून बदलते हैं और भिन्न-भिन्न हैं, जैसे जैन किसी प्रदेश में अल्पसंख्यक माने गये हैं और किसी प्रदेश में नहीं तथा केन्द्र सरकार चुप I पुरातत्त्व-संबंधी कानून एक मखौल बनकर रह गया । कुण्डलपुर के प्रकरण में यह स्वयं Antiquity बनकर रह
क्या वर्तमान काल में कोई अर्हद्बलि आचार्य की तरह सर्व दिगम्बर मुनिराजों का एक सिद्धक्षेत्र/तीर्थक्षेत्र - विशेष पर सम्मेलन बुलाकर उन्हें समझा सकता है कि वे केवली / श्रुतकेवलियों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों एवं आचारसंहिता का उल्लंघन न करें, न करने दें? आ. कुन्दकुन्द के मूल आम्नाय को अभी तो १८५०० वर्ष तक जीवन्त रहना है। यह जिम्मेदारी हम, आप सभी की है।
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गया।
अन्य लेख 'संतो की आड़ में खेल न खेलें' तथा 'मिथ्याप्रचार से सावधान' आज जैन समाज की दुर्दशा पर प्रहरी का रोल अदाकर रहे हैं, सतर्कता का संदेश दे रहे हैं।
आज देश में जिसकी लाठी उसकी भैंस का राज्य । अलग-अलग राजनैतिक मान्यतों का शासन भिन्नभिन्न प्रान्तों में है। अब 'राजाज्ञा' की क्या व्याख्या होगी ? आपको साधुवाद।
अमरचंद जैन महावीर उदासीन आश्रम कुण्डलपुर (दमोह) म.प्र.
अत्र स्वाध्यायामृतपानबलेन कुशलं तत्राप्यस्तु धर्मबन्धुवर ! दिसम्बर २००६ का 'जिनभाषित' मिला । पढ़कर अतीव प्रसन्नता हुई कि आपने 'दिगम्बर जैन परम्परा को मिटाने की सलाह' शीर्षक से श्रेष्ठ संपादकीय लिखा,
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आपने इसी अंक में गाँधी जी और बैरिस्टर चम्पतराय जी के पारस्परिक पत्रों को छापकर एक श्रेष्ठ ऐतिहासिक दस्तावेज प्रस्तुत किया है। मैं बैरिस्टर चम्पतराय जी, ब्र. शीतलप्रसाद जी, डॉ० ज्योतिप्रसाद जी आदि २०वीं शताब्दी के धर्मरक्षक, समाजपथ-प्रदर्शक उद्भट विद्वानों का बहुतबहुत उपकार मानता हूँ कि उन्होंने दिगम्बरत्व के महत्त्व को अँग्रेजों के शासनकाल में भी कम नहीं होने दिया। इस अंक के सभी लेख विशेषकर स्व० डॉ० ज्योतिप्रसाद जी का 'दिगम्बरत्व का महत्त्व' एवं डॉ० सागरमल जी जैन का 'समाधिमरण : तुलना एवं समीक्षा' भी ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश डालने वाले महत्त्वपूर्ण लेख हैं ।
शुद्ध-तेरापंथाम्नाय - पोषक 'विद्वज्जनबोधक' (लेखक पं. पन्नालालजी संघी, दूनी- राजस्थान जो कि पं० श्री सदासुखदास जी के शिष्य थे) ग्रन्थ का प्रकाशन व वितरण तत्काल होना चाहिए। यह ग्रन्थ मैंने वर्षों पूर्व भोपाल के ही किसी शास्त्रभण्डार में देखा था, पढ़ा था, परन्तु अभी कहीं
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